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+ वासना की धूल, चेतना का दर्पण 4
होता है, तो कोई भी इंद्रिय तत्काल रुक जाती है। आपके घर में आग लगी है, आप रास्ते से भागे चले जा रहे हैं। रास्ते पर कोई मिलता है; कहता है, नमस्कार ! आपको दिखाई नहीं पड़ता है। आंखें पूरी ठीक हैं। नमस्कार करता है, कान दुरुस्त हैं, सुनाई नहीं पड़ता है। आप भागे जा रहे हैं। क्यों?
मन कहीं और है, मन अटका है, मकान में आग लगी है। अब यह वक्त नमस्कार करने का नहीं है और न लोगों को रास्ते पर देखने का है। कल वह आदमी मिलता है और कहता है, रास्ते पर मिले थे आप | बड़े पागल जैसे मालूम पड़ते थे। देखा, फिर भी आपने देखा नहीं; सुना, फिर भी आपने जवाब नहीं दिया। बात क्या है ? नमस्कार की, आप कुछ बोले नहीं ? आप कहते हैं, न मैंने सुना, न मैंने देखा । मकान में आग लगी थी, मन वहां था । अगर मन हट जाए, तो इंद्रियां तत्काल बेकार हो जाती हैं। मन शक्तिशाली है। जहां मन है, इंद्रियां वहीं चली जाती हैं। जहां इंद्रियां हैं, वहां मन का जाना जरूरी नहीं है। आप ले जाते हैं, इसलिए जाता है। अगर आप मन कहीं ले जाएं, इंद्रियों को वहां जाना ही पड़ेगा। वे कमजोर हैं, उनकी शक्ति मन से आती है; मन की शक्ति इंद्रियों से नहीं आती।
फिर कृष्ण कहते हैं, मन के पार बुद्धि है। बुद्धि जहां हो, मन को वहां जाना पड़ता है। बुद्धि जहां न हो, वहां मन को जाने की कोई जरूरत नहीं। लेकिन हमारी हालत उलटी है। मन जहां जाता है, वहीं हम बुद्धि को ले जाते हैं। मन कहता है, यह करो; हम बुद्धि से कहते हैं कि अब इसके लिए दलील दो कि क्यों और कैसे करें। मन बताता है करने के लिए और बुद्धि सिर्फ जस्टीफिकेशन खोजती है । बुद्धि से हम पूछते हैं कि चोरी करना है, तुम बताओ तर्क क्या है ? तो बुद्धि कहती है कि सब धन चोरी है। जिनके पास है, उनकी भी चोरी है। तुम भी चोरी करो, हर्ज क्या है ? हम बुद्धि से मन का समर्थन खोजते हैं।
कृष्ण कहते हैं, बुद्धि मन के पार है। है ही, क्योंकि जहां मन भी नहीं रह जाता, वहां भी बुद्धि रहती है। रात जब आप गहरी प्रगाढ़ निद्रा में खो जाते हैं, तो मन नहीं रह जाता। स्वप्न नहीं रह जाते, विचार नहीं रह जाते। मन गया। मन विचारों का जोड़ है। लेकिन सुबह उठकर आप कहते हैं कि रात बड़ा आनंद रहा, बड़ी गहरी नींद आई। न स्वप्न आए, न विचार उठे। किसको पता चला फिर कि आप गहरी नींद में रहे? किसने जाना, आनंद था ? बुद्धि जाना।
बुद्धि मन के भी पार है। जो समर्थ हैं, वे बुद्धि से मन को चलाते हैं, मन से इंद्रियों को चलाते हैं। जो अपने सामर्थ्य को नहीं पहचानते और अपने हाथ से असमर्थ बने हैं, उनकी इंद्रियां उनके मन को चलाती हैं, उनका मन उनकी बुद्धि को चलाता है। वे शीर्षासन में जीते हैं; उलटे खड़े रहते हैं। फिर उनको अगर सारी दुनिया उलटी दिखाई पड़ती है, तो इसमें किसी का कोई कसूर नहीं है।
मैंने सुना है— पता नहीं कहां तक सच बात है, लेकिन सब सच हो सकता है— मैंने सुना है कि पंडित नेहरू एक दिन शीर्षासन कर
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थे अपने बगीचे में और एक गधा उनके बंगले में घुस गया। एक तो राजनीतिज्ञों के बंगलों के आस-पास गधों के अतिरिक्त और कोई जाता नहीं। और आदमी जाता, तो संतरी रोक लेता, गधे को क्या रोकना ! लेकिन वह साधारण गधा नहीं था, वह बोलने वाला गधा था। कई गधे बोलते हैं, इसमें कोई कठिनाई भी नहीं है। वह आकर पंडितजी के पास खड़ा हो गया। वे कर रहे थे शीर्षासन, उनको गधा उलटा दिखाई पड़ा। वे बड़े हैरान हुए। उन्होंने कहा, गधा, तू उलटा क्यों है? उस गधे ने कहा, पंडितजी ! मैं उलटा नहीं हूं, आप शीर्षासन कर रहे हैं। तब तो वे घबड़ाकर उठकर खड़े हो गए। उन्होंने कहा, तू बोलता भी है ! उस गधे ने कहा, मैं यही डर | रहा था कि कहीं बोलने की वजह से आप मुझे मिलने से इनकार न कर दें। नेहरूजी ने कहा, बेफिक्र रह । मेरे पास इतने गधे आते हैं बोलते हुए कि मैं सुनते-सुनते आदी हो गया हूं। तू बेफिक्री से बोल | पर नेहरू को दिखाई पड़ा कि गधा उलटा है !
हम सबको भी जगत उलटा दिखाई पड़ता है। हम एक बहुत गहरे शीर्षासन में हैं। वह गहरा शीर्षासन शरीर के शीर्षासन से भी | गहरा है, क्योंकि सब उलटा किया हुआ है। इंद्रियों की मानकर मन चल रहा है, मन की मानकर बुद्धि चल रही है और बुद्धि कोशिश करती है कि परमात्मा भी हमारी मानकर चले । पत्तों की मानकर शाखाएं चल रही हैं, शाखाओं की मानकर पींड चल रही है, पींड कोशिश कर रही है, जड़ें भी हमारी मानकर चलें। और अगर जड़ें नहीं मानती, तो हम कहते हैं, होंगी ही नहीं। अगर परमात्मा हमारी नहीं मानता, हम कहते हैं, नहीं है।
एक आदमी मेरे पास आया। उसने कहा, मैं तो परमात्मा को मानने लगा। क्या हुआ, मैंने कहा। उसने कहा कि मेरे लड़के को नौकरी नहीं लगती थी, मैंने परमात्मा को सात दिन का अल्टिमेटम | दिया। सात दिन में नौकरी लग जाए तो ठीक, अन्यथा तू नहीं है। और लग गई। और अब मैं मानने लगा। मैंने कहा कि तू परमात्मा
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