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गीता दर्शन भाग-1
को मानने लगा या परमात्मा तेरे को मानने लगा ? उसको भी मनाने की कोशिश चल रही है। मैंने कहा, अगर कल लड़के की नौकरी छूट जाए? तो उसने कहा कि फिर मुझे भरोसा नहीं रहेगा । हम उलटे चल रहे हैं जीवन को ।
कृष्ण कहते हैं, इंद्रियां मानें मन की, मन माने बुद्धि की, बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित हो, बुद्धि माने परमात्मा की । तब व्यक्तित्व सीधा, सरल, ऋजु — और तब व्यक्तित्व धार्मिक, आध्यात्मिक हो पाता है।
एक और, एक आखिरी और ।
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना । जाहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।। ४३ ।। इस प्रकार बुद्धि से परे अपने आत्मा को जानकर (और) बुद्धि के द्वारा मन को वश में करके हे महाबाहो, (अपनी शक्ति को समझकर इस) दुर्जय कामरूप शत्रु को मार ।
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तिम श्लोक है। कृष्ण कहते हैं, अपनी शक्ति को पहचानकर, और अपनी शक्ति परमात्मा की ही शक्ति है, और अपनी परम ऊर्जा को समझकर, और अपनी परम ऊर्जा परमात्मा की ही ऊर्जा है, इंद्रियों को वश में कर मन से, मन को वश में ला बुद्धि से और बुद्धि की बागडोर दे दे परमात्मा के हाथ में। और फिर इस दुर्जय काम के तू बाहर हो जाएगा, इस दुर्जय वासना के तू बाहर हो जाएगा।
इसमें दो-तीन बातें बहुत कीमत की हैं। एक तो यह कि क्रमशः जो जितना गहरा है, उतना ही सत्यतर है; और जो जितना गहरा है, उतना ही शक्तिवान है; और जो जितना गहरा है, उतना ही भरोसे योग्य है, ट्रस्टवर्दी है । जो जितना ऊपर है, उतना भरोसे योग्य नहीं है । लहरें भरोसे योग्य नहीं हैं, सागर की गहराई में भरोसा है। ऊपर जो है, वह सिर्फ आवरण है; गहरे में जो है, वह आत्मा है। इसलिए तू ऊपर को गहरे पर मत आरोपित कर, गहरे को ही ऊपर को संचालित करने दे | और एक-एक कदम वे पीछे हटाने की बात करते हैं। कैसे ?
इंद्रियों को मन से । साधारणतः इंद्रियां आदत के अनुसार चलती हैं, मन के अनुसार नहीं, क्योंकि मन के अनुसार हमने उन्हें कभी
चलाया नहीं होता। इंद्रियां आदत के अनुसार चलती हैं। आपका समय हुआ, हाथ खीसे में जाएगा, सिगरेट का पैकेट निकाल लेगा, सिगरेट निकाल लेगा। अभी आपको कुछ पता नहीं कि क्या हो रहा है । हाथ कर रहा है, आटोमैटिक । हो सकता है, आपको बिलकुल खयाल ही न हो। अपनी दूसरी धुन में लगे हैं। मन कुछ और कर | रहा है, मन कुछ और सोच रहा है। हाथ सिगरेट निकाल लेगा, में दबा देगा, माचिस जला लेगा, आग लगा देगा। धुआं खींचने लगेंगे, बाहर निकालने लगेंगे; और मन अपना काम जारी रखेगा। मन को इसका पता ही नहीं है। हां, मन को तो पता तब चले, जब खीसे में हाथ डालें और पैकेट न हो। तब मन को पता चलता है, क्या बात है ? पैकेट कहां है? अन्यथा मन की कोई जरूरत ही नहीं | पड़ती। इंद्रियों से हम इतने वशीभूत होकर जीते हैं कि इंद्रियां जब अड़चन में होती हैं, तभी मन की जरूरत पड़ती है। अन्यथा मन को वे कहती हैं कि तुम आराम करो, तुमसे कोई लेना-देना नहीं है, हम अपना काम कर लेंगे। पता ही नहीं चलता!
इंद्रियों ने सारा काम अपने हाथ में ले लिया है। ले लिया है, कहना ठीक नहीं, हमने दे दिया है। हमने धीरे-धीरे उन्हें आटोनामस सत्ता दे दी है, कह दिया है कि तुम सम्हालो यह काम | वे सम्हाल लेती हैं। इस स्थिति में मन को बीच में लाना पड़ेगा। अभी मन आता है बीच में, लेकिन तभी आता है, जब इंद्रियां अड़चन में होती हैं। अर्थात इंद्रियों को जब सेवा की जरूरत होती है, तभी मन बीच | में आता है। मालकियत के लिए कभी मन को बीच में नहीं बुलातीं वे | सेवा की जरूरत होती है, वे कहती हैं, पैकेट नहीं है सिगरेट | का! जाओ, बाजार से खरीदकर लाओ, इंद्रियां कहती हैं । वह बाजार जाता है, वह सिगरेट का पैकेट खरीदकर लाता है। नहीं तो सिगरेट हैं, तो वे कहती हैं, तुम अपना काम करो, तुम क्यों बीच में दखलंदाजी करते हो, हम अपना काम कर रहे हैं।
हमने सारा काम अपनी इंद्रियों पर सौंप दिया है, अब वे हमें चलाती रहती हैं। मन को बीच में कब लाया जाएगा, जब हम मन को सिर्फ सेवा के लिए न लाते हों, मालकियत के लिए लाते हों।
अगली बार जब खीसे में हाथ जाए, तो मन को लाएं; हाथ से मत निकालें सिगरेट, मन से निकालें । मनःपूर्वक निकालें । मनःपूर्वक सिगरेट निकालने का मतलब है, जानते हुए निकालें कि अब मैं सिगरेट पीने जा रहा हूं, सिगरेट निकाल रहा हूं। जानते हुए मुंह में लगाएं कि अब मैं सिगरेट मुंह में लगा रहा हूं। जानते हुए | आग जलाएं और जानते हुए कि अब मैं धुआं भीतर ले जाता और
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