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गीता दर्शन भाग-1-m
गए प्रयास से-अपनी वासना को शांत करने में सक्षम होते हैं। और यह छोटी बात नहीं है। मगर यह जानकर ही की जानी चाहिए अब। और अब यह जानकर ही होगी; क्योंकि युग बदलता है, प्रौढ़ता बदलती है मस्तिष्क की।
घर में यदि मिठाई रखी है, तो हम बच्चों से कह देते हैं कि भूत है कमरे में, मत जाना। कोई भूत नहीं होता, मिठाई होती है। लेकिन मिठाई बच्चा ज्यादा न खा ले। और बच्चे को अभी समझाने का कोई उपाय नहीं होता कि मिठाई ज्यादा खा लोगे तो नुकसान हो जाएगा। तो भूत खड़ा करना पड़ता है। काम हो जाता है— भूत की वजह से बच्चा नहीं जाता। लेकिन बच्चा फिर जवान हो जाता है। अब इसको कहिए, भूत है, तो वह कहता है, रहने दो, कोई फिक्र नहीं। बल्कि भूत की वजह से और आकर्षण पैदा होता है, वह और चला जाता है। वैसे शायद न भी जाता। अब तो उचित है कि इसे पूरी बात ही समझा दी जाए।
आदमियत ने जो-जो धारणाएं मनुष्यता के बचपन में निर्मित की थीं, वे सभी की सभी अब अस्तव्यस्त हो गई हैं। अब उचित है कि सीधी और साफ बात कह दी जाए। आज से पांच हजार साल पहले जब गीता कही गई होगी या और भी पहले, तो जो धारणाएं मनुष्य के विकास की बहुत प्राथमिक अवस्थाओं में कही गई थीं, वे अब सब हंसने योग्य हो गई हैं। अगर उन्हें बचाना हो तो उनके राज खोल देने जरूरी हैं, उन्हें सीधा-साफ कह देना जरूरी है कि वे इसलिए हैं। भूत नहीं है, मिठाई है। और मिठाई खाने के नुकसान क्या हैं, वे साफ कह देने उचित हैं।
मनुष्य प्रौढ़ हुआ है। और इसलिए मनुष्य सारी दुनिया में अधार्मिक दिखाई पड़ रहा है। यह मनुष्य की प्रौढ़ता है, अधार्मिकता नहीं है। असल में प्रौढ़, एडल्ट आदमी के लिए, एडल्ट ह्यूमैनिटी के लिए, प्रौढ़ हो गई मनुष्यता के लिए, बचपन में दिए गए मनुष्यता को जो सिद्धांत थे, अब उनकी आत्मा को फिर से नए शरीर देने की जरूरत है।
'भी जन्मता है, मरता है। जो भी उत्पन्न होता है, वह UII विनष्ट होता है। जो भी निर्मित होगा, वह बिखरेगा,
समाप्त होगा। कृष्ण कह रहे हैं, इसे स्मरण रख भारत, | इसे स्मरण रख कि जो भी बना है. वह मिटेगा। और जो भी बना | है, वह मिटेगा; जो जन्मा है, वह मरेगा-इसका अगर स्मरण हो, | इसकी अगर याददाश्त हो, इसका अगर होश, अवेयरनेस हो, तो | उसके मिटने के लिए दुख का कोई कारण नहीं रह जाता। और जिसके मिटने में दुख का कारण नहीं रह जाता, उसके होने में सुख
का कोई कारण नहीं रह जाता। | हमारे सुख-दुख हमारी इस भ्रांति से जन्मते हैं कि जो भी मिला
है वह रहेगा। प्रियजन आकर मिलता है, तो सुख मिलता है | लेकिन जो आकर मिला है, वह जाएगा। जहां मिलन है, वहां विरह है। जो मिलन में विरह को देख ले, उसके मिलन का सुख विलीन हो जाता है, उसके विरह का दुख भी विलीन हो जाता है। जो जन्म | में मृत्यु को देख ले, उसकी जन्म की खुशी विदा हो जाती है, उसका | मृत्यु का दुख विदा हो जाता है। और जहां सुख और दुख विदा हो | जाते हैं, वहां जो शेष रह जाता है, उसका नाम ही आनंद है। आनंद | सुख नहीं है। आनंद सुख की बड़ी राशि का नाम नहीं है। आनंद | सुख के स्थिर होने का नाम नहीं है। आनंद मात्र दुख का अभाव
नहीं है। आनंद मात्र दुख से बच जाना नहीं है। आनंद सख और दुख दोनों से ही उठ जाना है, दोनों से ही बच जाना है।
असल में सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो मिलन में सिर्फ मिलन को देखता और विरह को नहीं देखता, वह क्षणभर के सुख को उपलब्ध होता है। फिर जो विरह में सिर्फ विरह
को देखता है, मिलन को नहीं देखता, वह क्षणभर के दुख को | उपलब्ध होता है। और जब कि मिलन और विरह एक ही प्रक्रिया
के दो हिस्से हैं: एक ही मैग्नेट के दो पोल हैं: एक ही चीज के दो | छोर हैं।
इसलिए जो सुखी हो रहा है, उसे जानना चाहिए, वह दुख की | ओर अग्रसर हो रहा है। जो दुखी हो रहा है, उसे जानना चाहिए, वह सुख की ओर अग्रसर हो रहा है। सुख और दुख एक ही अस्तित्व के दो छोर हैं। और जो भी चीज निर्मित है, जो भी चीज बनी है, वह बिखरेगी; बनने में ही उसका बिखरना छिपा है; निर्मित होने में ही | उसका विनाश छिपा है। जो व्यक्ति इस सत्य को पूरा का पूरा देख लेता है. परा...। हम आधे सत्य देखते हैं और दखी होते हैं। यह बड़े मजे की बात है, असत्य दुख नहीं देता, आधे सत्य दुख
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः । आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत । । १४ ।। हे कुंतीपुत्र, सर्दी-गर्मी और सुख-दुख को देने वाले इंद्रिय
और विषयों के संयोग तो क्षणभंगर और अनित्य है। इसलिए, हे भरतवंशी अर्जुन, उनको तू सहन कर।
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