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- आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन
पर
क्यों हो? और जो मिट ही जाता है, उसमें हिंसा कैसी? | भी नहीं सुना होगा।
एक यंत्र को तोड़ते वक्त तो हम नहीं कहते कि हिंसा हो गई। इस वक्त जीसस का मुझे स्मरण आता है। जीसस ने कहा है, एक घड़ी को फोड़ दें पत्थर पर पटककर, तब तो नहीं कहते कि कान हैं तुम्हारे पास, लेकिन तुम सुनते कहां! आंख है तुम्हारे पास, हिंसा हो गई, तब तो हम नहीं कहते कि बड़ा पाप हो गया! क्यों? लेकिन तुम देखते कहां! क्योंकि कुछ भी तो नहीं था घड़ी में, जो न मिटने वाला हो। कृष्ण को ऐसा ही लगा होगा। नहीं सुन रहा है, नहीं सुन रहा है,
तो कृष्ण कहते हैं, जो मिट ही जाने वाले यंत्र की भांति हैं, जिनमें | नहीं समझ रहा है। बात भी सुनने और समझने से आने वाली कहां कोई अजर, अमर तत्व ही नहीं हैं, तो मिटा दो इन यंत्रों को, हर्ज | है! कसूर भी उसका क्या है! बात अस्तित्वगत है, बात अनुभूतिगत क्या है? फिर चिंतित क्यों होते हो? और कल तम भी मिट | है। मात्र सुनने से कैसे समझ में आ जाएगी? जाओगे, तो किस पर लगेगा पाप? कौन होगा भागीदार पाप का? नहीं, अभी कृष्ण को और मेहनत लेनी पड़ेगी। और-और कौन भोगेगा? कौन किसी यात्रा पर तुम जा रहे हो, जहां कि इनको आयामों से दरवाजे उसके खटखटाने पड़ेंगे। अभी तक वे जो कह मारने का जिम्मा और रिस्पांसिबिलिटी तुम्हारी होने को है? तुम भी | | रहे थे, पर्वत के शिखर से कह रहे थे। अब वे अंधेरी गली का तर्क नहीं बचोगे। ये भी मर जाएंगे, तुम भी मर जाओगे; डस्ट अनटु ही अंधेरी गली के लिए उपयोग कर रहे हैं। डस्ट, धूल धूल में गिर जाएगी। तो चिंता क्या करते हो?
लेकिन ध्यान रहे, यह कृष्ण अपनी तरफ से नहीं बोलते। कृष्ण इतनी बात कहकर अर्जुन की आंखों में देखते होंगे, कुछ परिणाम जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्बुवं जन्म मृतस्य च। नहीं होता है। परिणाम आसान भी नहीं है। आपकी आंखों में देखें, तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ।। २७ ।। तो जानता हूं कि नहीं होता है।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। आत्मा अमर है, सुनने से नहीं होता है कुछ। देखा होगा कृष्ण अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना । । २८ ।। ने कि वह अर्जुन वैसा ही निढाल बैठा है। ये बातें उसके सिर पर क्योंकि ऐसा होने से तो जन्मने वाले की निश्चित मृत्यु और से गुजर जाती हैं। सुनता है कि आत्मा अमर है, लेकिन उसकी चिंता मरने वाले का निश्चित जन्म होना सिद्ध हुआ। इससे भी तू में कोई अंतर नहीं पड़ता। तो कृष्ण यह वचन मजबूरी में अर्जुन की इस बिना उपाय वाले विषय में शोक करने को योग्य नहीं तरफ से बोलते हैं। वे कहते हैं, छोड़ो, मुझे छोड़ो। मैं जो कहता है। (और यह भीष्मादिकों के शरीर मायामय होने से अनित्य हूं, उसे जाने दो। फिर ऐसा ही मान लो, तुम जो कहते हो, वही हैं, इससे शरीरों के लिए शोक करना उचित नहीं है, ठीक है। लेकिन ध्यान रहे, वे कहते हैं, ऐसा ही मान लो, लेट अस क्योंकि) हे अर्जुन, संपूर्ण प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर सपोज। कहते हैं, ऐसा ही स्वीकार कर लेते हैं। तुम जो कहते हो, वाले और मरने के बाद भी बिना शरीर वाले ही हैं। वही मान लेते हैं कि आत्मा मर जाती है, तो फिर तुम चिंता कैसे केवल बीच में ही शरीर वाले (प्रतीत होते हैं। कर रहे हो? फिर चिंता का कोई भी कारण नहीं। फिर धूल धूल में
फिर उस विषय में क्या चिंता है? गिर जाएगी। मिट्टी मिट्टी में मिल जाएगी। पानी पानी में खो जाएगा। आग आग में लीन हो जाएगी। आकाश आकाश में तिरोहित हो जाएगा। फिर चिंता कैसी?
मन याल आपको आया होगा कि कृष्ण जब अपनी तरफ यह अर्जुन के ही तर्क से, अर्जुन की ही ओर से कृष्ण कोशिश असे बोल रहे थे, तब उन्होंने अर्जुन को मूर्ख भी कहा। करते हैं। यह कृष्ण का वक्तव्य बताता है कि अर्जुन को देखकर
जब वे अपनी सतह से बोल रहे थे, तब अर्जुन को कैसी निराशा उन्हें न हुई होगी। यह वक्तव्य बहुत मजबूरी में दिया | मूढ़ कहने में भी उन्हें कठिनाई न हुई। लेकिन जब वे अर्जुन की हुआ वक्तव्य है। यह वक्तव्य खबर देता है कि अर्जुन बैठा सुनता | | तरफ से बोल रहे हैं, तब उसे महाबाहो, भारत...तब उसे बड़ी रहा होगा। फिर भी उसकी आंखों में वही प्रश्न रहे होंगे, वही चिंता | | प्रतिष्ठा दे रहे हैं, बड़े औपचारिक शब्दों का उपयोग कर रहे हैं। रही होगी, वही उदासी रही होगी। सुन लिया होगा उसने और कुछ | जब अपनी तरफ से बोल रहे थे, तब उसे निपट मूढ़ कहा, कि तू
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