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________________ गीता दर्शन भाग-1 निपट गंवार है, तू बिलकुल मूढ़ है, तू बिलकुल मंद बुद्धि है। लेकिन अब उसी मंद बुद्धि अर्जुन को वे कहते हैं, हे महाबाहो ! अब उसकी ही जगह उतरकर बात कर रहे हैं। अब ठीक उसके कंधे पर हाथ रखकर बात कर रहे हैं। अब ठीक मित्र जैसे बात कर रहे हैं। क्योंकि इतनी बात से लगा है कि जिस शिखर की उन्होंने बात कही, वह उसकी पकड़ में शायद नहीं आती। बहुत बार ऐसा हुआ है। मोहम्मद ने कहा है कि मैं वैसा कुआं नहीं हूं कि अगर तुम मेरे पास पानी पीने न आओ, तो मैं तुम्हारे पास न आऊं । अगर तुम मोहम्मद के पास न आओगे, तो मोहम्मद तुम्हारे पास आएगा। और अगर प्यासा कुएं के पास न आएगा, तो कुआं ही प्यासे के पास जाएगा। कृष्ण अर्जुन के पास वापस आकर खड़े हो गए हैं। ठीक वहीं खड़े थे, भौतिक शरीर तो वहीं खड़ा था पूरे समय, लेकिन पहले वे बोल रहे थे बहुत ऊंचाई से। वहां से, जहां आलोकित शिखर है। तब वे अर्जुन को कह सके, तू नासमझ है। अब वे अर्जुन को कह रहे हैं कि तेरी समझ ठीक है। तू अपनी ही समझ का उपयोग कर। अब मैं तेरी समझ से ही कहता हूं। लेकिन अब वे जो कह रहे हैं, वह सिर्फ तर्क और दलील की बात है। क्योंकि जो अनुभव को न पकड़ पाए, फिर उसके लिए तर्क और दलील के अतिरिक्त पकड़ने को कुछ भी नहीं रह जाता; कोई उपाय नहीं रह जाता। जो तर्क और दलील को ही पकड़ पाए, तो फिर तर्क और दलील की ही बात कहनी पड़ती है। लेकिन उस बात में प्राण नहीं है, वह बल नहीं है। वह बल हो नहीं सकता। क्योंकि कृष्ण जानते हैं कि वे जो कह रहे हैं, अब सिर्फ तर्क है, अब सिर्फ दलील है। अब वे यह कह रहे हैं कि तुझे ही ठीक मान लेते हैं। लेकिन यह जो शरीर बना है, जिन भौतिक तत्वों से, जिस माया से, खो जाएगा उसमें । विद्वान पुरुष इसके लिए चिंता नहीं किया करते। विद्वान और ज्ञानी के फर्क को भी ठीक से समझ लेना चाहिए। क्योंकि पहले कृष्ण पूरे समय कह रहे हैं कि जो ऐसा जान लेता है, वह ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है। लेकिन अब वे कह रहे हैं - ज्ञानी नहीं- - अब वे कह रहे हैं, विद्वान पुरुष चिंता को उपलब्ध नहीं हो । विद्वान का वह तल नहीं है, जो ज्ञानी का है। विद्वान तर्क के तल पर जीता है, युक्ति के तल पर जीता है। ज्ञानी अनुभूति के तल पर जीता है। ज्ञानी जानता है, विद्वान सोचता है। लेकिन यही सही, कृष्ण कहते हैं, नहीं ज्ञानी होने की तैयारी तेरी, तो विद्वान ही हो जा। सोच मत कर, चिंता मत कर। क्योंकि सीधी-सी बात है कि जब सब खो ही जाता है, इतना तो तू सोच ही सकता है, यह तो विचार में ही आ जाता है कि सब खो जाता है, सब मिट जाता है, तो फिर चिंता मत कर, मिट जाने दे। तू बचाएगा कैसे ? तू बचा कैसे सकेगा? तो जो अपरिहार्य है— दैट व्हिच इज़ इनएविटेबल - जो अपरिहार्य है, जो होगा ही, होकर ही रहेगा, उसमें तू ज्यादा से ज्यादा निमित्त है, अपने को निमित्त समझ ले । विद्वान हो जा, चिंता से मुक्त हो। लेकिन इसे समझ लेना। कृष्ण ने जब अर्जुन को मूढ़ भी कहा, तब भी इतना अपमान न था, जितना अब विद्वान होने के लिए कहकर हो गया है। मूढ़ कहा, तब तक भरोसा था उस पर अभी । अभी आशा थी कि उसे खींचा जा सकता है शिखर पर । उसे | देखकर वह आशा छूटती है। अब वे उसे प्रलोभन दे रहे हैं विद्वान | होने का। वे कह रहे हैं कि कम से कम, बुद्धिमान तो तू है ही। और | बुद्धिमान पुरुष को चिंता का कोई कारण नहीं, क्योंकि बुद्धिमान | पुरुष ऐसा मानकर चलता है कि सब चीजें बनी हैं, मिट जाती हैं। कुछ बचता ही नहीं है पीछे, बात समाप्त हो जाती है। रास्ते में मैं आ रहा था, तो मेरे जो सारथी थे यहां लाने वाले, वे कहने लगे कि कृष्ण बड़ा अपमान करते हैं अर्जुन का कभी मूर्ख कहते हैं, कभी नपुंसक कह देते हैं उसको; यह बात ठीक नहीं है। . अब वे बड़ा सम्मान कर रहे हैं। वे कह रहे हैं, हे महाबाहो, हे भारत, विद्वान पुरुष शोक से मुक्त हो जाते हैं । तू भी विद्वान है । | लेकिन मैं आपसे कहता हूं, अपमान अब हो रहा है। जब उसे मूढ़ कहा था, तो बड़ी आशा से कहा था कि शायद यह चिनगारी, शायद | यह चोट... वह ठीक शॉक ट्रीटमेंट था। वह बेकार चला गया। वह ठीक शॉक ट्रीटमेंट था, बड़ा धक्का था। अर्जुन को काफी क्रोध चढ़ा | देते हैं वे । लेकिन उसको क्रोध भी नहीं चढ़ा। उसे सुनाई ही नहीं पड़ा कि वे क्या कह रहे हैं। वह अपनी ही रटे चला जाता है। तब वे अब, अब यह बिलकुल निराश हालत में कृष्ण कह रहे हैं। ऐसे बहुत उतार-चढ़ाव गीता में चलेंगे। कभी आशा बनती है | कृष्ण को, तो ऊंची बात कहते हैं। कभी निराशा आ जाती है, तो फिर नीचे उतर आते हैं। इसलिए कृष्ण भी इसमें जो बहुत-सी बातें कहते हैं, वे एक ही तल पर कही गई नहीं हैं। कृष्ण भी चेतना के बहुत से सोपानों पर बात करते हैं। कहीं से भी— लेकिन अथक | चेष्टा करते हैं कि अर्जुन कहीं से भी कहीं से भी उस यात्रा पर निकल जाए, जो अमृत और प्रकाश को उसके अनुभव में ला दे । 148
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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