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________________ Om आत्म-विद्या के गूढ़ आयामों का उदघाटन पर आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन वे कहते हैं, लेकिन वह आत्मा सोचने-समझने, मनन से नहीं माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः । उपलब्ध होता है; विचार से नहीं उपलब्ध होता है। एक तो यही आश्चर्यवच्चैनमन्यः शृणोति आश्चर्य है कि मुश्किल से कभी कोई उसके संबंध में विचार करता श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् । । २९ ।। है। लेकिन विचार करने वाला भी उसे पा नहीं लेता है। पाता तो उसे और हे अर्जुन, यह आत्मतत्व बड़ा गहन है, इसलिए कोई वही है, जो विचार करते-करते विचार का भी अतिक्रमण कर जाता (महापुरुष) ही इस आत्मा को आश्चर्य की तरह देखता है | है। जो विचार करते-करते वहां पहुंच जाता है, जहां विचार कह और वैसे ही दूसरा कोई महापुरुष ही आश्चर्य की तरह। | देता है कि बस, अब आगे मेरी गति नहीं है। इसके तत्व को कहता है और दूसरा कोई ही इस आत्मा को एक तो करोड़ों में कभी कोई विचार शुरू करता है। और फिर आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई सुनकर भी इस आत्मा उन करोड़ों में, जो विचार करते हैं, कभी कोई एक विचार की सीमा को नहीं जानता। के आगे जाता है। और विचार की सीमा के आगे जाए बिना, उसका कोई अनुभव नहीं है। क्योंकि आत्मा का होना विचार के पूर्व है। आत्मा विचार के पीछे और पार है। विचार आत्मा के ऊपर उठी हुई व ड़ी अदभुत बात है। एक तो कृष्ण कहते हैं, इस आत्मा लहरें हैं, तरंगें हैं। विचार आत्मा की सतह पर दौड़ते हुए हवा के प की दिशा में किसी भी मार्ग से गति करने वाला एक | झोंके हैं। विचार से आत्मा को नहीं जाना जा सकता। आत्मा से आश्चर्य है-एक मिरेकल, एक चमत्कार। किसी भी | | विचारों को जाना जा सकता है। क्योंकि विचार ऊपर हैं, आत्मा दिशा से उन्मुख होने वाला आत्मा की तरफ-एक चमत्कार है। | पीछे है। विचार को आत्मा से जाना सकता है, विचार से आत्मा को क्योंकि करोड़ों-करोड़ों में कभी कोई एक उस ऊंचाई की तरफ | | नहीं जाना जा सकता। मैं अपने हाथ से इस रूमाल को पकड़ आंख उठाता है। अन्यथा हमारी आंखें तो जमीन में गड़ी रह जाती| सकता हूं। लेकिन इस रूमाल से अपने हैं, आकाश की तरफ कभी उठती ही नहीं। नीचाइयों में उलझी रह हाथ पीछे है। विचार बहुत ऊपर है। जाती हैं, ऊंचाइयों की तरफ हमारी आंख की कभी उड़ान नहीं | __एक जगत है हमारे बाहर, वस्तुओं का; वह बाहर है। फिर एक होती। कभी हम पंख नहीं फैलाते आकाश की तरफ। कभी जगत है हमारे भीतर, विचारों का; लेकिन वह भी बाहर है। हम करोड़ों-करोड़ों में कोई एक आदमी...। | उसके भी पीछे हैं। हमारे बिना वह नहीं हो सकता। हम उसके बिना इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य शायद यही है कि कभी कोई | भी हो सकते हैं। रात जब बहुत गहरी नींद में सो गए होते आदमी स्वयं को जानने के लिए आतुर और पिपासु होता है। होना हैं—सुषुप्ति में-तब कोई विचार नहीं रह जाता, लेकिन आप होते नहीं चाहिए ऐसा; लेकिन है ऐसा। मैं कौन हूं? यह कोई पूछता ही हैं। सुबह कहते हैं, स्वप्न भी नहीं था, विचार भी नहीं था, बड़ी नहीं। होना तो यह चाहिए कि यह बुनियादी प्रश्न होना चाहिए | गहरी थी नींद। लेकिन आप तो थे। विचार के बिना आप हो सकते प्रत्येक के लिए। क्योंकि जिसने अभी यह भी नहीं पूछा कि मैं कौन हैं, लेकिन कभी आपका विचार आपके बिना नहीं हो सकता। वह हूं, उसके और किसी बात के पूछने का क्या अर्थ है! और जिसने | जो पीछे है, वह विचार को जान सकता है, लेकिन विचार उसे नहीं अभी यह भी नहीं जाना कि मैं कौन हूं, वह और जानने निकल पड़ा जान सकते। है? जिसका खुद का घर अंधेरे से भरा है, जिसने वहां भी दीया नहीं | लेकिन हम विचार से ही जानने की कोशिश करते हैं। पहले तो जलाया, उससे ज्यादा आश्चर्य का आदमी नहीं होना चाहिए। । | हम जानने की कोशिश ही नहीं करते। वस्तुओं को जानने की लेकिन कृष्ण बड़ा व्यंग्य करते हैं, वे बड़ी मजाक करते हैं; बहुत | कोशिश करते हैं। वस्तुओं से किसी तरह करोड़ों में एक का आयरानिकल स्टेटमेंट है। वे यह कहते हैं कि अर्जुन, बड़े आश्चर्य | छुटकारा होता है, तो विचारों में उलझ जाता है। क्योंकि वस्तुओं के की बात है कि कभी करोड़ों-करोड़ों में कोई एक आदमी आत्मा के बाद विचारों का जगत है। विचार से भी किसी का छटकारा हो, तो संबंध में खोज पर जानने पर निकलता है। लेकिन पीछे और एक स्वयं को जान पाता है। मजेदार बात कहते हैं। __ तो कृष्ण कहते हैं, चिंतन से, मनन से, अध्ययन से, प्रवचन से 149
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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