SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 283
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विषय-त्याग नहीं — रस - विसर्जन मार्ग है 4 अंगूठे तक पहुंचने के लिए ध्यान उसके पास था ही नहीं। ध्यान एंगेज्ड था, आकुपाइड था, पूरा का पूरा संलग्न था खेल में। अभी ध्यान के पास सुविधा न थी कि अंगूठे तक जाए। तो अंगूठा पड़ा रहा, चिल्लाता रहा कि चोट लगी है, चोट लगी है। लेकिन कहीं कोई सुनवाई न थी। सुनने वाला मौजूद नहीं था। सुनने वाला उस यात्रा पर जाने को राजी नहीं था, जहां अंगूठा है। सुनने वाला अभी कहीं और था, व्यस्त था । फिर खेल बंद हुआ; व्यस्तता समाप्त हुई। सुनने वाला, ध्यान, अटेंशन वापस आया। अब फुर्सत थी । वह पैर की तरफ भी गया। वहां पता चला कि खून बह रहा है, चोट लग गई है, दर्द है। 1 तो स्थितप्रज्ञ की प्रज्ञा तो पूरे समय अव्यस्त है, अनआकुपाइड है । जिस व्यक्ति का चित्त बिलकुल शांत है, उसकी चेतना हमेशा अव्यस्त है। उसकी चेतना कहीं भी उलझी नहीं है, सदा अपने में है। तो उसके पैर में अगर कांटा गड़ेगा, तो अनंत गुना अनुभव उसे होगा, जितना हमें होता है। कष्ट तथ्य है, वह जानेगा कि पैर में कष्ट है। लेकिन पैर में कष्ट उसका, मुझमें दुख है, ऐसी व्याख्या नहीं बनेगा। पैर का कष्ट एक घटना है— बाहर, दूर, अलग। ध्यान रहे, कष्ट और हमारे बीच सदा फासला है, दुख और हमारे बीच फासला नहीं है। जब हम कष्ट से आइडेंटिफाइड होते हैं, जब कष्ट ही मैं हो जाता हूं, तब कष्ट दुख बनता है। वह कहेगा, पैर में चोट है, पैर में कांटा गड़ रहा है। वह उपाय करेगा कि कांटे को निकाले; पैर के लिए इंतजाम करे। लेकिन इससे उद्विग्न नहीं है। अब यह भी बड़े मजे की बात है कि अगर पैर में कष्ट है, तो उद्विग्न होने से कम नहीं होगा। जितना उद्विग्न आदमी होगा, उतना कम करने के उपाय कम कर सकेगा। जितना अनुद्विग्न आदमी होगा, उतने शीघ्र उपाय कर सकेगा। मैं एक गांव में ठहरा था। मेरे पड़ोस के मकान में आग लग गई। एक बहुत मजेदार दृश्य देखने को मिला। तीन मंजिल मकान है। पूरे मकान पर टीन ही टीन छाए हुए हैं। दूसरे मंजिल पर आग लगी। बीड़ी के पत्ते रखे हुए हैं। मकान मालिक इतना उद्विग्न हो गया कि वह तीसरी मंजिल पर चढ़ गया, जहां उसकी टंकी है पानी । और उसने टंकी से बालटियां लेकर पानी फेंकना शुरू कर दिया तीसरी मंजिल से । सारा मकान टीन से छाया हुआ है। टीन आग की तरह लाल तप रहे हैं। वह पानी उन टीनों पर गिरे और वह पानी जाकर नीचे खड़े लोगों पर गिरे, जो घर से बच्चों को निकाल रहे हैं, सामान निकाल रहे हैं। जिस पर वह पानी गिर जाए, वही चीखकर भागे कि मार डाला ! फिर कोई उसके पास आने को तैयार न हुआ। भीड़ खड़ी है, सारे लोग नीचे से चिल्ला रहे हैं, तुम यह क्या पागलपन कर रहे हो! पानी डालना बंद करो, नहीं तो तुम्हारे बच्चे अंदर मर जाएंगे। तुम्हारे घर से एक चीज न निकाली जा सकेगी। | लेकिन वह आदमी बस इतना ही चिल्ला रहा है, बचाओ ! आग लग गई! बचाओ ! आग लग गई ! और पानी डालता चला जा रहा है। उस आदमी ने - आग ने नहीं-उस पूरे मकान को जलवा दिया। क्योंकि एक आदमी भी बुझाने की स्थिति में भीतर नहीं जा सका। एक बच्चा भी मरा, आग से नहीं, उसके पानी से । उस तक |पहुंचने का भी कोई उपाय न रहा कि कैसे उस तक कोई चढ़कर | जाए ! उसका पानी इतने जोर से आता था कि कौन वहां चढ़कर जाए! बांसों से लोगों ने दूसरे मकानों पर चढ़कर उस पर चोट की कि भाई साहब! यह क्या कर रहे हो ? वह बांस को ऐसा अलग कर दे और कहे कि बचाओ ! आग लगी है! और पानी डालता रहा। यह उद्विग्न चित्त आत्मघाती हो जाता है। अनुद्विग्न चित्त, जो उचित है, वह करता है । कष्ट हो सिर्फ, दुख न हो, तो उद्विग्न नहीं होते आप, सिर्फ कष्ट के बोध से भरे होते हैं। दुख मानसिक व्याख्या है, कष्ट तथ्य है। ठीक ऐसे ही अकष्ट तथ्य है, सुख मानसिक व्याख्या है। स्थितप्रज्ञ कष्ट और अकष्ट को भलीभांति जानता है। कांटों पर लिटाइए, तो उसे पता चलता है कि कांटे हैं; और गद्दी पर बिठाइए, | तो उसे पता चलता है कि गद्दी है। लेकिन गद्दी पर बैठने की वह आकांक्षा नहीं बांध लेता, गद्दी पर बैठकर वह पागल नहीं हो जाता, गद्दी से वह एक नहीं हो जाता। गद्दी सुख बनती, मानसिक व्याख्या नहीं बनती, एक भौतिक तथ्य होती है। कांटे भी एक भौतिक तथ्य होते हैं। स्थिती अनुभव में, अनुभूति में, तथ्यों के जानने में पूरी तरह संवेदनशील होता है। लेकिन व्याख्या जो हम करते हैं, वह नहीं करता है । मृत्यु उसकी भी आती है। हम दुखी होते हैं, वह दुखी नहीं होता। वह मृत्यु को देखता मृत्यु आती है। बुढ़ापा उसका भी आता है। ऐसा नहीं कि उसे पता नहीं चलता कि अब बुढ़ापा आ | गया। लेकिन वह बुढ़ापे को देखता है कि जीवन का एक तथ्य है और आता है। वह जवानी को जाते देखता, बुढ़ापे को आते देखता। बुढ़ापे के कष्ट होंगे, शरीर जीर्ण - जर्जर होगा। लेकिन शरीर होगा, स्थितधी को ऐसा नहीं लगता कि मैं हो रहा हूं। लेकिन जब हम बूढ़े 253
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy