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9- गीता दर्शन भाग-1-m
सदा खड़ा रखें और कहें कि देख, मन क्या कर रहा है! और मन | को दे दें परम सत्ता के हाथ में। उसी तरह दीन हो जाता है, जैसे इंद्रियां मन के आने से दीन होती ___ और कृष्ण कहते हैं, हे कौन्तेय, हे अर्जुन, ऐसा जो अपने को हैं। बुद्धि के आने से मन दीन हो जाता है।
संयमित कर लेता, वह व्यक्ति दुर्जय कामना के पार हो जाता है __ और यह जो बुद्धि है, इसको भी सब कुछ मत सौंप दें, क्योंकि अर्थात वह आत्मा को उपलब्ध हो जाता है। यह भी परम नहीं है। परम तो इसके पार है, जहां से यह बुद्धि भी मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत आती है। तो यह भी हो सकता है, एक आदमी बुद्धि से मन को वश | अनुगृहीत हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम में कर ले, मन से इंद्रियों को वश में कर ले, लेकिन बुद्धि के वश में करता हूं, मेरे प्रणाम स्वीकार करें। हो जाए, तो अहंकार से भर जाएगा। बुद्धि ईगोइस्ट हो जाएगी। बुद्धि बहुत ईगोइस्टिक है, बुद्धि बहुत अहंकारपूर्ण है। वह कहेगा, मैं जानता, सब मुझे पता है। मैंने मन को भी जीता, इंद्रियों को भी जीता, अब मैं बिलकुल ही अपना सम्राट हो गया हूं। तो यहां भी अटकाव हो जाएगा। बद्धि सोच सकती है. विचार सकती है। लेकिन जीवन का सत्य अगम है, बुद्धि की पकड़ के बाहर है। बुद्धि कितना ही सोचे, सोच-सोचकर कितना ही पाए, फिर भी जीवन एक रहस्य है, एक मिस्ट्री है; और उसके द्वार बुद्धि से नहीं खुलते।
हां, बद्धि भी जब उलझती है, तब परमात्मा को याद करती है। लेकिन जब तक सुलझी रहती है, तब तक कभी याद नहीं करती। धंधा बिलकुल ठीक चल रहा है, दुकान ठीक चल रही है, पैसा ठीक आ रहा है, लाभ ठीक हो रहा है, गणित ठीक हल हो रहा है, विज्ञान की खोज ठीक चल रही है-परमात्मा की कोई याद नहीं
आती। आपने खयाल किया, जब दुख में पड़ती है बुद्धि, तब परमात्मा की याद आती है। जब उलझती है, जब लगता है, अपने से अब क्या होगा। पत्नी मरती है और डाक्टर कहते हैं कि बस यहीं मेडिकल साइंस का अंत आ गया। अब हम कुछ कर नहीं सकते। जो हम कर सकते थे, वह हम कर चुके। जो हम कर सकते हैं, वह हम कर रहे हैं। लेकिन अब हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है। तब एकदम हाथ जुड़ जाते हैं कि हे भगवान! तू कहां है? लेकिन अभी तक कहां था भगवान ? यह डाक्टर की बुद्धि थक गई, अपनी बुद्धि थक गई, अब भगवान है।
नहीं, इतने से नहीं चलेगा। जब बुद्धि हारती है, तब समर्पण का कोई मजा नहीं। हारे हुए समर्पण का कोई अर्थ है? जब बुद्धि जीतती है और जब सुख चरणों पर लोटता है और जब लगता है, सब सफल हो रहा है, सब ठीक हो रहा है, बिलकुल सब सही है, तब जो आदमी परमात्मा को स्मरण करता है, उसकी बुद्धि परमात्मा के लिए समर्पित होकर परमात्मा के वश में हो जाती है। इंद्रियों को दें मन के हाथ में, मन को दें बुद्धि के हाथ में, बुद्धि
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