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________________ im गीता दर्शन भाग-1 AM मिलता हो, तो भी बेकार है। ऐसे बड़े राज्य की बात करके, फिर मित्र थे, वे इकट्ठे हो गए हैं; जो थोड़े कम मित्र थे, वे उस तरफ इकट्ठे वह उसका दसरा निष्कर्ष निकालता है कि तब पथ्वी के राज्य का हो गए हैं। मित्र वे भी हैं. प्रियजन वे भी हैं. गरु उस तरफ हैं। तो प्रयोजन ही क्या है! ऐसा बड़ा खयाल मन में पैदा करके कि मैं यह मैं कह रहा हूं, महत्वपूर्ण है। और ऐसी सिचुएशन इसलिए तीनों लोक का राज्य भी छोड़ सकता हूं, तो फिर पृथ्वी का राज्य तो महत्वपूर्ण है कि जिंदगी में चीजें वाटर टाइट कंपार्टमेंट में बंटी हुई छोड़ ही सकता हूं। लेकिन न उसको पृथ्वी का राज्य छोड़ने की | नहीं होती हैं। जिंदगी में चीजें काले और सफेद में बंटी हुई नहीं इच्छा है। और अगर कहीं कृष्ण उससे कहें कि देख, तुझे तीनों होतीं। जिंदगी ग्रे का फैलाव है। उसके एक कोने पर काला होता लोक का राज्य दिए देते हैं, तो वह बड़ी बिगूचन में पड़ जाएगा। है, दूसरे कोने पर सफेद होता है, लेकिन जिंदगी के बड़े फैलाव में वह कह रहा है, अपने को समझा रहा है। काला और सफेद मिश्रित होता है। यहां फलां आदमी शत्रु और अब यह बड़े मजे की बात है कि बहुत बार जब हम अपने को | फलां आदमी मित्र, ऐसा बंटाव नहीं है। फलां आदमी कम मित्र, समझाते होते हैं, तो हमारे खयाल में नहीं होता है कि हम किन-किन | | फलां आदमी ज्यादा मित्र; फलां आदमी कम शत्रु, फलां आदमी तरकीबों से अपने को समझाते हैं। बड़ा मकान देखकर पड़ोसी का | ज्यादा शत्रु-ऐसा बंटाव है। यहां जिंदगी में एब्सोल्यूट टर्म नहीं हम कहते हैं, क्या रखा है बड़े मकान में! लेकिन जब कोई आदमी | हैं। यहां कोई चीज पूरी कटी हुई नहीं है। यही उलझाव है। यहां सब कहता है, क्या रखा है बड़े मकान में! तो उस आदमी को बहुत कुछ चीजें कम-ज्यादा में बंटी हैं। रखा है, निश्चित ही रखा है। अन्यथा बड़ा मकान दिखता नहीं। वह __ हम कहते हैं, यह गरम है और यह ठंडा है। लेकिन ठंडे का क्या अपने को समझा रहा है, वह अपने मन को सांत्वना दे रहा है कि | | मतलब होता है, थोड़ा कम गरम। गरम का क्या मतलब होता है, कुछ रखा ही नहीं है, इसलिए हम पाने की कोशिश नहीं करते। अगर थोड़ा कम ठंडा। कभी ऐसा करें कि एक हाथ को स्टोव पर जरा कुछ होता, तो हम तत्काल पा लेते। लेकिन कुछ है ही नहीं, इसलिए गरम कर लें और एक हाथ को बरफ पर रखकर जरा ठंडा कर लें हम पाने की कोई कोशिश नहीं करते। . और फिर दोनों हाथों को एक ही बाल्टी के पानी में डाल दें, तब यह अर्जुन कह रहा है, तीन लोक के राज्य में भी क्या रखा है, आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे। तब ठीक अर्जुन की हालत में इसलिए पृथ्वी के राज्य में तो कुछ भी नहीं रखा है। और इतने छोटे | पड़ जाएंगे। तब आपका एक हाथ कहेगा पानी ठंडा है और एक से राज्य की बात के लिए इतने प्रियजनों को मारना...! हाथ कहेगा पानी गरम है। और एक ही पानी है। दोनों तो नहीं हो यह प्रियजनों को मारना उसके लिए सर्वाधिक कष्टपूर्ण मालूम सकता एक साथ-ठंडा और गरम! पड़ रहा है, न कि मारना कष्टपूर्ण मालूम पड़ रहा है। प्रियजनों को जीवन में सब कुछ सापेक्ष है, रिलेटिव है। जिंदगी में कुछ भी मारना कष्टपूर्ण मालूम पड़ रहा है। निरपेक्ष नहीं है। यहां सब कम-ज्यादा का बंटाव है। अर्जुन की वही स्वभावतः, सारा परिवार वहां लड़ने को खड़ा है। ऐसे युद्ध के तकलीफ है। और जो आदमी भी जिंदगी को देखेगा ठीक से, मौके कम आते हैं। यह युद्ध भी विशेष है। और युद्ध की तीक्ष्णता उसकी यही तकलीफ हो जाएगी। यहां सब कम-ज्यादा का बंटाव यही है महाभारत की कि एक ही परिवार कटकर खड़ा है। उस | है। कोई थोड़ा अपना ज्यादा, कोई अपना कम। कोई थोड़ा ज्यादा कटाव में भी सब दुश्मन नहीं हैं। कहना चाहिए कि जो फर्क | | निकट, कोई थोड़ा जरा दूर। कोई सौ प्रतिशत, कोई नब्बे प्रतिशत, है-यह थोड़ा सोचने जैसा है जो फर्क है, वह दुश्मन और मित्र कोई अस्सी प्रतिशत अपना है। और कोई नब्बे प्रतिशत, कोई का कम है; जो फर्क है, वह कम मित्र और ज्यादा मित्र का ही है। | अस्सी प्रतिशत, कोई सत्तर प्रतिशत पराया है। लेकिन जो पराया है, जो बंटवारा है, वह बंटवारा ऐसा नहीं है कि उस तरफ दुश्मन हैं | | उसमें भी अपना एक प्रतिशत का हिस्सा है। और जो अपना है, और इस तरफ मित्र हैं। इतना भी साफ होता कि उस तरफ पराए हैं | उसमें भी पराए के प्रतिशत का हिस्सा है। इसलिए जिंदगी उलझाव और इस तरफ अपने हैं, तो कटाव बहुत आसानी से हो जाता। | है। यह कट जाए ठीक शत्रु-मित्र में, अच्छे-बुरे में, तो बड़ा अर्जुन ठीक से मार पाता। आसान हो जाए। इतना आसान नहीं हो पाता। ... लेकिन बंटवारा बहुत अजीब है। और वह अजीब बड़ा अर्थपूर्ण __राम के भीतर भी थोड़ा रावण है और रावण के भीतर भी थोड़ा है। वह अजीब बंटवारा ऐसा है कि इस तरफ अपने थोड़े जो ज्यादा | राम है। इसलिए तो रावण को भी कोई प्रेम कर पाता है, नहीं तो
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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