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________________ - गीता दर्शन भाग-1-m झूठ से भी खतरनाक होते हैं। खतरनाक है। शायद मनुष्य के ऊपर इससे बड़े खतरे के बादल यह सच है कि आदमी में क्रोध है, और यह स्वभाव है। और कभी भी नहीं आए थे, जितने बड़े खतरे के बादल इस बात से आए यह भी सच है कि आदमी में क्रोध से विकसित होने की संभावना हैं कि जो भी है, वह है। यह तो होगा ही, यह तो बिलकुल है, वह भी उसका स्वभाव है। यह सच है कि क्रोध है। और यह स्वाभाविक है। भी सच है कि क्रोध से मुक्त होने की आकांक्षा है, वह भी स्वभाव | | मैं आपसे कहना चाहता हूं कि मैं भी कहता हूं कि बिलकुल है। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है, जिसमें क्रोध है और क्रोध से स्वाभाविक है। मनोविज्ञान से मेरी गहरी सहमतियां हैं, लेकिन मुक्त होने की आकांक्षा नहीं है। तो क्रोध स्वभाव है, और क्रोध से असहमतियां भी हैं। मैं मानता हं, मनोविज्ञान जहां तक जाता है, मुक्त होने की आकांक्षा? वह स्वभाव नहीं है? ऐसा आदमी बहुत ठीक है। लेकिन उसके आगे भी यात्रा-पथ है। जहां तक जाता खोजना मुश्किल है, जो अपने को अतिक्रमण नहीं करना चाहता, है, बिलकुल ठीक। लेकिन जहां से इनकार करता है, वहां बिलकुल जो अपने से ऊपर नहीं जाना चाहता। जो है, वह स्वभाव है। जो | | गलत है। फ्रायड जहां तक जाते हैं, बिलकुल ठीक, वहां तक कृष्ण होना चाहता है, वह भी स्वभाव है। और बुद्ध भी इनकार नहीं करते। लेकिन कृष्ण और बुद्ध कहते हैं, और निश्चित ही, जो होना चाहता है, उसके लिए, जो है उसको | | यह अंत नहीं है, यह बिलकुल प्रारंभ है। और इस प्रारंभ का ऐसा रूपांतरित करना पड़ता है। उसकी विधियां हैं। उस विधि का नाम | | उपयोग करना है कि अंत भी फलित हो सके। ही धर्म है। अगर मनुष्य जैसा है, वैसा ही है, तब धर्म की कोई | ___ जड़ स्वभाव है, लेकिन फूल तक भी पहुंचना है। अन्यथा जड़ें अर्थवत्ता नहीं है, मीनिंगलेस है। बड़ी कुरूप होती हैं; गंदी होती हैं; अंधेरे में दबी होती हैं; नीचे इसलिए अगर पश्चिम में धर्म का सारा मूल्य खो गया, तो उसके | | अंधेरे रास्तों में, जमीन में फैली होती हैं। स्वाभाविक हैं, बिलकुल खोने का बहुत गहरा कारण यही है कि पश्चिम के मनोविज्ञान ने | | जरूरी हैं, लेकिन जड़ें फूल नहीं हैं। और अगर जड़ों पर कोई वृक्ष आदमी को कहा कि यह तो स्वभाव है। ऐसा होगा ही। | रुक जाए और कोई फ्रायड वृक्ष को समझा दे कि पागल, यही तेरा एक मित्र मेरे पास आए, यही अभी परसों। उन्होंने कहा कि मैं स्वभाव है। और वृक्ष रुक जाए और कहे, क्या करेंगे अब आकाश बहुत परेशान था, नींद मुझे नहीं आती थी। नींद खो गई थी, इससे में उठकर, जड़ें ही अपना स्वभाव है, तो फिर फूल नहीं आएंगे। चिंतित था। मनोवैज्ञानिक के पास गया, तो मनोवैज्ञानिक ने कहा कि और मजा यह है कि जड़ें इसीलिए हैं कि फूल आएं। और फूल यह तो बिलकुल ठीक है। मनोवैज्ञानिक ने पूछा कि सेक्स के बाबत और जड़ में कितना विरोध है! कहां फूल-आकाश में खिले हुए, तुम्हारी क्या स्थिति है? तो मनोवैज्ञानिक ने उनसे कहा कि तुम । सूर्य की रोशनी में नाचते हुए! और कहां जड़ें-अंधेरे में दबी हुई! हस्तमैथुन, मस्टरबेशन शुरू कर दो। उन्होंने कहा कि कैसी बात विरोध है बड़ा, सामंजस्य भी है बड़ा, क्योंकि फूल बिना जड़ों के कहते हैं? तो उन्होंने कहा, यह तो स्वभाव है। यह तो आदमी को | नहीं हो सकते। करना ही पड़ता है! जब मनोवैज्ञानिक कहता हो, वे राजी हो गए। | यह भी आखिरी बात मैं आपसे कहना चाहता हूं कि फूल बिना कि उसी मनोवैज्ञानिक | जड़ों के नहीं हो सकते; हालांकि जड़ें बिना फल के हो सकती हैं। ने कहा कि अब तुम्हें इलेक्ट्रिक शॉक की जरूरत है। अब तुम यह जीवन का एक बहत बड़ा दर्भाग्य है कि यहां बिजली के शॉक्स लो। अब जब मनोवैज्ञानिक कह रहा है। और श्रेष्ठ के बिना हो सकता है; लेकिन यहां जो श्रेष्ठ है, वह निम्न के हम तो अथारिटी के ऐसे दीवाने हैं, ऐसे पागल हैं। और जो चीज बिना नहीं होता। एक मंदिर पर स्वर्ण के शिखर रखने हों, तो नींव जब अथारिटी बन जाए! कभी मंदिर का पुरोहित अथारिटी था, तो भरनी ही पड़ती है। नींव के बिना स्वर्ण-शिखर नहीं होते; लेकिन वह जो कह दे, वह सत्य था। अब वह पौरोहित्य जो है मंदिर का, स्वर्ण-शिखर के बिना नींव हो सकती है-नींव भरें और छोड़ दें। वह मनोवैज्ञानिक के हाथ में आया जा रहा है। अब वह जो कह दे, | जो निम्न है, वह श्रेष्ठ के बिना भी हो सकता है। लेकिन जो श्रेष्ठ वह सत्य है। तो बिजली के शॉक ले लिए। सब तरह से व्यक्तित्व | है, वह निम्न के बिना नहीं हो सकता। इसलिए अगर निम्न को हमने अस्तव्यस्त हो गया। स्वभाव समझा, नियति समझी, डेस्टिनी समझी, तो जड़ें ही रह स्वभाव की आड़ में आदमी की पशुता को बचाने की चेष्टा | जाती हैं हाथ में। फिर दो साल । वह | 180
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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