SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 468
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM श्रेयान्स्वधमों विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । जाए। गुलाब का फूल कमल होने की कोशिश में पड़ जाए, तो स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ।। ३५।। | जैसी बेचैनी में गुलाब का फूल पड़ जाएगा। और बेचैनी दोहरी अच्छी प्रकार आचरण किए हुए दूसरे के धर्म से, होगी। एक तो गुलाब का फूल कमल का फूल कितना ही हो गुणरहित भी, अपना धर्म अति उत्तम है। चाहे, हो नहीं सकता है; असफलता सुनिश्चित है। गुलाब का फूल अपने धर्म में मरना भी कल्याणकारक है और दूसरे का धर्म | कुछ भी चाहे, तो कमल का फूल नहीं हो सकता। न कमल का भय को देने वाला है। फूल कुछ चाहे, तो गुलाब का फूल हो सकता है। वह असंभव है। | स्वभाव के प्रतिकूल होने की कोशिश भर हो सकती है, होना नहीं हो सकता। 11 त्येक व्यक्ति की अपनी निजता, अपनी इंडिविजुएलिटी | ___ इसलिए गुलाब का फूल कमल का फूल होना चाहे, तो कमल प्र है। प्रत्येक व्यक्ति का कुछ अपना निज है; वही उसकी | | का फूल तो कभी न हो सकेगा, इसलिए विफलता, फ्रस्ट्रेशन, हार, आत्मा है। उस निजता में ही जीना आनंद है और उस | हीनता उसके मन में घूमती रहेगी। और दूसरी उससे भी बड़ी निजता से च्युत हो जाना, भटक जाना ही दुख है। दुर्घटना घटेगी कि उसकी शक्ति कमल होने में नष्ट हो जाएगी और कृष्ण के इस सूत्र में दो बातें कृष्ण ने कही हैं। एक, स्वधर्म में | वह गुलाब भी कभी न हो सकेगा। क्योंकि गुलाब होने के लिए जो मर जाना भी श्रेयस्कर है। स्वधर्म में भूल-चूक से भटक जाना भी | शक्ति चाहिए थी, वह कमल होने में लगी है। कमल हो नहीं श्रेयस्कर है। स्वधर्म में असफल हो जाना भी श्रेयस्कर है, बजाय | | सकता; गुलाब हो नहीं सकेगा, जो हो सकता था, क्योंकि शक्ति परधर्म में सफल हो जाने के। सीमित है। उचित है कि गुलाब का फूल गुलाब का फूल हो जाए। स्वधर्म क्या है? और परधर्म क्या है? प्रत्येक व्यक्ति का स्वधर्म | | और गुलाब का फूल चाहे छोटा भी हो जाए, तो भी हर्ज नहीं। न है। और किन्हीं दो व्यक्तियों का एक स्वधर्म नहीं है। पिता का धर्म | हो बड़ा फूल कमल का, गुलाब का फूल छोटा भी हो जाए, तो भी भी बेटे का धर्म नहीं है। गुरु का धर्म भी शिष्य का धर्म नहीं है। हर्ज नहीं है। और अगर न भी हो पाए, गुलाब होने की कोशिश भी यहां धर्म से अर्थ है, स्वभाव, प्रकृति, अंतःप्रकृति। प्रत्येक व्यक्ति | कर ले, तो भी एक तृप्ति है; कि जो मैं हो सकता था, उसके होने की अपनी अंतःप्रकृति है, लेकिन है बीज की तरह बंद, अविकसित, | की मैंने पूरी कोशिश की। उस असफलता में भी एक सफलता है पोटेंशियल है। और जब तक बीज अपने में बंद है, तब तक बेचैन | कि मैंने वह होने की पूरी कोशिश कर ली, कुछ बचा नहीं रखा था, है। जब तक बीज अपने में बंद है और खिल न सके, फूट न सके, कुछ छोड़ नहीं रखा था। अंकुर न बन सके, और फूल बनकर बिखर न सके जगत सत्ता में, लेकिन जो गुलाब कमल होना चाहे, वह सफल तो हो नहीं तब तक बेचैनी रहेगी। जिस दिन बीज अंकुरित होकर वृक्ष बन | सकता। अगर किसी तरह धोखा देने में सफल हो जाए, आत्मवंचना जाता है, फूल खिल जाते हैं, उस दिन परमात्मा के चरणों में वह | में, सेल्फ डिसेप्शन में सफल हो जाए, सपना देख ले कि मैं कमल अपनी निजता को समर्पित कर देता है। फूल के खिले हुए होने में | | हो गया...सपने ही देख सकता है, परधर्म में कभी हो नहीं सकता। जो आनंद है, वैसा ही आनंद स्वयं में जो छिपा है, उसके खिलने सपना देख सकता है कि मैं हो गया। भ्रम में पड़ सकता है कि मैं हो में भी है। और परमात्मा के चरणों में एक ही नैवेद्य, एक ही फूल | गया। तो वैसी सपने की सफलता से वह छोटा-सा गुलाब हो जाना, चढ़ाया जा सकता है, वह है स्वयं की निजता का खिला हुआ | असफल, बेहतर है। क्योंकि एक तृप्ति का रस सत्य से मिलता है, फूल-फ्लावरिंग आफ इंडिविजुएलिटी। और कुछ हमारे पास | स्वप्न से नहीं मिलता है। चढ़ाने को भी नहीं है। कृष्ण ने यहां बहुत बीज-मंत्र कहा है। अर्जुन को वे कह रहे हैं जब तक हमारे भीतर का फूल पूरी तरह न खिल पाए, तब तक | कि स्वधर्म में-जो तेरा धर्म हो उसकी तू खोज कर। पहले तू हम संताप, दुख, बेचैनी, तनाव में जीएंगे। इसलिए जो व्यक्ति | | इसको खोज कि त क्या हो सकता है। तू अभी दूसरी बातें मत खोज परधर्म को ओढ़ने की कोशिश करेगा, वह वैसी ही मुश्किल में पड़ कि तेरे वह होने से क्या होगा। सबसे पहले तू यह खोज कि तू क्या जाएगा, जैसे चमेली का वृक्ष चंपा के फूल लाने की कोशिश में पड़ हो सकता है। तू जो हो सकता है, उसका पहले निर्णय ले ले। और 14381
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy