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________________ गीता दर्शन भाग-14 एक-सा ही लगेगा। हम और वे रास्ते पर चलते हुए एक-से ही मालूम पड़ेंगे, लेकिन हम एक-से नहीं हैं। इस तरह के व्यक्तियों को ही हमने अवतार कहा है। इसलिए अवतार शब्द के संबंध में दो बातें खयाल में ले लें। अवतार हम उस व्यक्ति को कहते हैं, जिसे पाने को कुछ भी शेष नहीं रहा, फिर भी पाने वालों के बीच में खड़ा है। अवतार हम उस व्यक्ति को कहते हैं, जिसे जानने को कुछ शेष नहीं रहा, फिर भी जानने वालों की पाठशाला में बैठा हुआ है। अवतार हम उसे कहते हैं, जिसके लिए जिंदगी में अब लेने योग्य कुछ भी नहीं है, फिर भी जिंदगी के घनेपन में खड़ा है। अवतार का कुल अर्थ इतना ही है कि जो पहुंच चुका, वह भी रास्ते पर है। बुद्ध के जीवन में एक उल्लेख है । उल्लेख है कि बुद्ध का निर्वाण हुआ। कहानी है बहुत मधुर, बहुत मीठी। फिर भी सत्य, कहानी की तरह नहीं, उसके अभिप्राय की तरह । बुद्ध का निर्वाण हो गया और निर्वाण के बाद की कथा है कि वे मोक्ष के द्वार पर खड़े हैं। द्वारपाल ने दरवाजे खोल दिए हैं, लेकिन बुद्ध द्वार से प्रवेश नहीं करते। द्वारपाल कहता है, भीतर आएं, स्वागत है । और मोक्ष प्रतीक्षा करता है आपकी बहुत दिनों से। चालीस वर्ष पहले बुद्ध को आ जाना चाहिए था, क्योंकि मरने के चालीस वर्ष पहले यात्रा पूरी हो गई थी। मरने के चालीस वर्ष पहले ही जो पाना था, पा लिया गया; और जो जानना था, वह जान लिया गया था। लेकिन चालीस वर्ष कहां थे? चालीस वर्ष से मोक्ष प्रतीक्षा करता है कि आएं। द्वार चालीस वर्ष से खुले हैं। लेकिन बुद्ध कहते हैं, अभी भी मैं प्रवेश नहीं करूंगा । द्वार को अभी और बहुत दिन तक खुले रहना पड़ेगा। वह द्वारपाल कहता है, क्या कह रहे हैं आप ! लोग द्वार खटखटाते हैं, तब भी मोक्ष के द्वार नहीं खुलते। लोग छाती पीटते हैं, तो भी मोक्ष के द्वार नहीं खुलते। लोग गिड़गिड़ाते हैं, तो भी मोक्ष के द्वार नहीं खुलते। मोक्ष द्वार खुले हैं और आप रुके हैं बाहर! प्रवेश करें, रुकते क्यों हैं ? तो बुद्ध कहते हैं कि जब तक एक आदमी भी मेरे पीछे मोक्ष के बिना रह गया है, तब तक मैं प्रवेश नहीं कर सकता हूं। मैं अंतिम आदमी हो सकता हूं, जो मोक्ष में प्रवेश करेगा। महायान बौद्ध धर्म के फकीर कहते हैं, बुद्ध अब भी मोक्ष के द्वार पर खड़े हैं। द्वार खुले हैं और बुद्ध द्वार पर ही खड़े हैं। अब भी खड़े हैं। जब तक अंतिम आदमी प्रवेश न कर जाए, तब तक वे खड़े ही रहने वाले हैं। कहानी है। अभिप्राय गहरा है और सत्य है। कृष्ण यही कह रहे हैं। अर्जुन को वे एक बात स्मरण दिलाना चाहते हैं और वह यह कि अपने लिए ही कर्म करना काफी नहीं है। असली कर्म तो उसी दिन शुरू होता है, जिस दिन वह दूसरे के लिए शुरू होता है। अपने लिए ही जीना पर्याप्त नहीं है । असली जिंदगी तो उसी दिन शुरू होती है, जिस दिन वह दूसरे के लिए शुरू होती है। ध्यान रहे, जो सिर्फ अपने लिए, खुद के कुछ पाने के लिए जीता | है, वह बोझ से ही जीएगा, बर्डनसम ही होगी उसकी जिंदगी - एक | बोझ, एक भार। लेकिन जिस दिन व्यक्ति अपने लिए सब पा चुका | होता, सब जान चुका होता, फिर भी जीता है, तब जिंदगी निर्भार, | वेटलेस हो जाती है। तब जिंदगी से ग्रेविटेशन, जमीन की कशिश खो जाती है; और आकाश का प्रसाद, प्रभु की ग्रेस बरसनी शुरू है। हम जमीन से बंधे हुए जीते हैं, हम जिंदगी के बोझ से भरे हुए जीते हैं। जो भी अपने लिए जी रहा है, वह जमीन के बोझ से भरा | हुआ जीएगा। अपने लिए जीने से ज्यादा बड़ा कष्ट दूसरा नहीं है। इस साधारण जिंदगी में भी वे ही क्षण हमारे आनंद के होते हैं, जब हम थोड़ी देर के लिए दूसरे के लिए जीते हैं। मां जब अपने बेटे के लिए जी लेती है, तब आनंद से भर जाती है। मित्र जब अपने मित्र के लिए जी लेता है, तो आनंद से भर जाता है। क्षणभर को भी अगर हम दूसरे के लिए जीते हैं, तभी हमारे जीवन में आनंद होता है। कृष्ण कह रहे हैं, जिसने सब पा लिया, वह दूसरे के लिए ही जीता है, अपने लिए जीने का तो कोई कारण ही शेष नहीं रह जाता। | और तब आनंद की अनंत वर्षा उसके ऊपर हो जाती है। अर्जुन को | वे कह रहे हैं कि तू अपने लिए ही मत सोच । केवल अपने लिए ही | मत सोच - अपने लिए सोच, क्योंकि तेरे लिए भी अभी यात्रा बाकी है - लेकिन उनके लिए भी सोच, जिनके लिए बहुत यात्रा बाकी है और जो अभी जीवन के अंधेरे पथों पर हैं और जिन्हें | मंजिल का कोई भी प्रकाश दिखाई नहीं पड़ा है। 388 प्रश्नः भगवान श्री, कल की चर्चा पर दो छोटे प्रश्न हैं। एक मित्र पूछते हैं कि आपने वर्ण व्यवस्था के बारे में जो कहा, क्या आज वह व्यवस्था आज की स्थिति में उचित है उसे लाना ? और दूसरा प्रश्न है कि आश्रमों की चर्चा आपने की और उम्र का भी विभाजन
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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