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वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना
किया। संन्यास चौथी अवस्था में आता है, तो मित्र पूछते हैं कि आप बहुत छोटी उम्र के लोगों को भी संन्यास की दीक्षा दे रहे हैं, तो क्या वह उचित है ?
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मय बदल जाता है, परिस्थिति बदल जाती है, लेकिन जीवन के मूल सत्य नहीं बदलते हैं। और जो उन मूल सत्यों को अस्वीकार करता है, वह केवल कष्ट में, दुख और चिंता में पड़ता है। सब कुछ बदल जाता है, लेकिन जीवन के जो आधार - सत्य हैं, वे नहीं बदलते हैं। वर्ण और आश्रम की व्यवस्था किसी समाज विशेष और किसी परिस्थिति विशेष के नियम पर निर्मित नहीं थी । वर्णाश्रम की व्यवस्था मनुष्य के चित्त के ही नियमों पर निर्भर थी। और आज भी उतने ही उपयोग की है, जितनी कभी हो सकती थी और कल भी उतने ही उपयोग की रहेगी। इसका यह मतलब नहीं है कि वर्ण व्यवस्था के नाम पर जो चल रहा है, वह उपयोगी है। जो चल रहा है, वह तो वर्ण व्यवस्था नहीं है। जो चल रहा है, वह तो वर्ण व्यवस्था के नाम पर रोग है, बीमारी है।
असल में सभी ढांचे सड़ जाते हैं। सत्य नहीं सड़ते, ढांचे सड़ जाते हैं। और अगर सत्यों को बचाना हो, तो सड़े हुए ढांचों को रोज अलंग करने का साहस रखना चाहिए। जो ढांचा निर्मित हुआ था, वह तो सड़ गया; उसके प्राण तो कभी के खो गए, उसकी आत्मा तो कभी की लोप हो गई; सिर्फ देह रह गई है। और उस देह में हजार तरह की सड़ांध पैदा होगी, क्योंकि आत्मा के साथ ही उस देह में सड़ांध पैदा नहीं हो सकती थी।
दो बातें वर्ण के संबंध में। एक तो, जिस दिन वर्ण हाइरेरिकल गया, , जिस दिन वर्ण नीचे-ऊंचे का भेद करने लगा, उसी दिन सड़ांध शुरू हो गई। वर्ण के सत्य में नीचे-ऊंचे का भेद नहीं था; वर्ण के सत्य में व्यक्तित्व भेद था। शूद्र ब्राह्मण से नीचा नहीं है, ब्राह्मण शूद्र से ऊंचा नहीं है। क्षत्रिय शूद्र से ऊंचा नहीं है, वैश्य ब्राह्मण सें नीचा नहीं है। नीचे-ऊंचे की बात खतरनाक सिद्ध हुई । शूद्र शूद्र है, ब्राह्मण ब्राह्मण है। यह टाइप की बात है।
जैसे कि समझें, एक आदमी पांच फीट का है और एक आदमी छह फीट का है। तो पांच फीट का आदमी छह फीट के आदमी से
नहीं है। पांच फीट का आदमी पांच फीट का आदमी है, छह फीट का आदमी छह फीट का आदमी है। एक आदमी काला है, एक आदमी गोरा है। काला आदमी गोरे आदमी से नीचा नहीं है।
काला आदमी काला है, गोरा आदमी गोरा है। पिगमेंट का फर्क है, चमड़ी में थोड़े-से रंग का फर्क है। मुश्किल से दो, तीन, चार आने के दाम का फर्क है। और चमड़ी के फर्क से कोई आदमी में फर्क नहीं होता । गोरे की चमड़ी में भी आज नहीं कल, तीन - चार आने का पिगमेंट काला डाला जा सकेगा, तो वह काली हो जाएगी। काले की चमड़ी गोरी हो जाएगी। गोरा गोरा है, काला काला है; ऊंचे-नीचे का फासला जरा भी नहीं है। एक आदमी के पास थोड़ी ज्यादा बुद्धि है, एक आदमी के पास थोड़ी कम बुद्धि है। ऊंचे-नीचे का फिर भी कोई कारण नहीं है। कोई कारण नहीं है। जैसे पिगमेंट का फर्क है, ऐसे ही बुद्धि की मात्रा का फर्क है । है फर्क ।
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वर्ण की व्यवस्था में फर्क, डिफरेंस की स्वीकृति थी, वेल्युएशन नहीं था, मूल्यांकन नहीं था। और उचित है कि स्वीकृति हो, क्योंकि |जिस दिन स्वीकृति खो जाती है, उस दिन उपद्रव, उत्पात शुरू होता | है। अब आज वर्ण टिकेगा नहीं। क्योंकि सड़ी हुई वर्ण की व्यवस्था, कोई लाख उपाय करे, टिक नहीं सकती। लेकिन वर्ण लौटेगा। यह व्यवस्था तो मरेगी, लेकिन वर्ण लौटेगा।
जितना मनुष्य के संबंध में वैज्ञानिक चिंतन बढ़ेगा आने वाली सदी में, वर्ण की व्यवस्था वापस लौट आएगी। हिंदुओं की वर्ण की | व्यवस्था नहीं लौटेगी। वह तो गई, वह मर गई। वर्ण की व्यवस्था लौट आएगी और अब और ज्यादा वैज्ञानिक होकर लौटेगी। क्योंकि जितना मनुष्य के संबंध में समझदारी बढ़ रही है, जितना | मनोविज्ञान विकसित हो रहा है, उतनी बात साफ होती जा रही है | कि चार तरह के लोग हैं । उनको इनकार करने का कोई उपाय नहीं | है । और हम कुछ भी उपाय करें, हम सारे लोगों को सिर्फ एक ही तरह से एक वर्ण का बना सकते हैं। और वह यह कि हम लोगों की | आत्मा को बिलकुल नष्ट कर दें और लोगों को बिलकुल मशीनें बना दें। वर्ण की व्यवस्था उसी दिन असत्य होगी, जिस दिन आदमी मशीन हो जाएगा, आदमी नहीं होगा; उसके पहले असत्य नहीं हो सकती।
मशीनें एक-सी हो सकती हैं। फोर्ड की कारें हैं, तो लाख कारें एक-सी हो सकती हैं। रत्तीभर फर्क खोजा नहीं जा सकता। एक ढांचे में ढलती हैं, एक-सी हो सकती हैं। कारें इसीलिए एक-सी हो सकती हैं, क्योंकि उनके पास कोई आत्मा नहीं है। हां, आत्मा होगी, तो व्यक्ति एक-से कभी नहीं हो सकते। आत्मा का अर्थ ही भेद है। व्यक्तित्व का अर्थ ही अंतर है, डिफरेंस है। आपके पास व्यक्तित्व है, उसका मतलब ही यही है कि आप दूसरे व्यक्तियों से
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