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________________ गीता दर्शन भाग-1 उपकरण, अंतरतम - जहां तक अंतस में जाया जा सकता है भीतर - वह जो आखिरी है भीतर, वही अंतःकरण है। इसका मतलब क्या हुआ? इसका मतलब आत्मा नहीं। अब यह बड़े मजे की बात है, अंतःकरण का मतलब आत्मा नहीं है। क्योंकि आत्मा तो वह है, जो बाहर और भीतर दोनों में नहीं है, दोनों के बाहर है। अंतःकरण वह है, आत्मा के निकटतम जो उपकरण है, जिसके द्वारा हम बाहर से जुड़ते हैं। समझ लें कि आत्मा के पास एक दर्पण है, जिसमें आत्मा प्रतिफलित होती है, वह अंतःकरण है, निकटतम । आत्मा में पहुंचने के लिए अंतःकरण आखिरी सीढ़ी है। और अंतःकरण आत्मा के इतने निकट है कि अशुद्ध नहीं हो सकता । आत्मा की यह निकटता उसकी शुद्धि है। यह अंतःकरण कांशिएंस नहीं है, जो हमारे भीतर, जब हम सड़क पर चलते हैं और बाएं न चलकर दाएं चल रहे हों, तो भीतर से कोई कहता है कि दाएं चलना ठीक नहीं है, बाएं चलना ठीक है। यह अंतःकरण नहीं है। यह केवल सामाजिक आंतरिक व्यवस्था है । यह अंतस - चेतन है, जो समाज ने इंतजाम किया है, ताकि आपको व्यवस्था और अनुशासन दिया जा सके। समाज अलग होते हैं, व्यवस्था अलग हो जाती है। अमेरिका में चलते हैं, तो बाएं चलने की जरूरत नहीं है। वहां अंतःकरणजिसको हम अंतःकरण कहते हैं—वह कहता है, दाएं चलो, बाएं मत चलना। क्योंकि नियम बाएं चलने का नहीं है, दाएं चलने का है। सामाजिक व्यवस्था की जो आंतरिक धारणाएं हैं, वे अंतःकरण नहीं हैं। तो अंतःकरण का हमें पता ही नहीं है, इसका मतलब यह हुआ । हम जिसे अंतःकरण समझ रहे हैं, वह बिलकुल ही भ्रांत है। अंतःकरण नैतिक धारणा का नाम नहीं है, अंतःकरण मारैलिटी नहीं है। क्योंकि मारैलिटी हजार तरह की होती हैं, अंतःकरण एक ही तरह का होता है। हिंदू की नैतिकता अलग है, मुसलमान की नैतिकता अलग, जैन की नैतिकता अलग, ईसाई की नैतिकता अलग, अफ्रीकन की अलग, चीनी की अलग। नैतिकताएं हजार हैं, अंतःकरण एक है। अंतःकरण शुद्ध ही है। आत्मा के इतने निकट रहकर कोई चीज अशुद्ध नहीं हो सकती। जितनी दूर होती है आत्मा से, उतनी अशुद्ध की संभावना बढ़ती है। अगर ठीक से समझें, मोर दि डिस्टेंस, मोर दि इंप्योरिटी । जैसे एक दीया जल रहा है यहां दीए की बत्ती जल रही है । बत्ती के बिलकुल पास रोशनी का वर्तुल है, वह शुद्धतम है । फिर बत्ती की रोशनी आगे गई; फिर धूल है, हवा है, और | रोशनी अशुद्ध हुई। फिर और दूर गई, फिर और अशुद्ध हुई; फिर और दूर गई, फिर और अशुद्ध हुई। और थोड़ी दूर जाकर हम देखते | हैं कि रोशनी नहीं है, अंधेरा है। एक-एक कदम रोशनी जा रही है और अंधेरे में डूबती जा रही है। शरीर तक आते-आते सब चीजें अशुद्ध हो जाती हैं; आत्मा तक जाते-जाते सब शुद्ध हो जाती हैं। शरीर के निकटतम इंद्रियां हैं। इंद्रियों के निकटतम अंतस इंद्रियां हैं। अंतस इंद्रियों के निकटतम स्मृति है। स्मृति के निकटतम बुद्धि है - प्रायोगिक । प्रायोगिक, एप्लाइड इंटलेक्ट के निकटतम अप्रायोगिक बुद्धि है। अप्रायोगिक बुद्धि के नीचे अंतःकरण है। अंतःकरण के नीचे आत्मा है। आत्मा के नीचे परमात्मा है। ऐसा अगर खयाल में आ जाए, तो सांख्य कहता है कि अंतःकरण शुद्ध ही है। वह कभी अशुद्ध हुआ नहीं। लेकिन हमने अंतःकरण को जाना नहीं है, इसलिए लोग पूछते, अंतःकरण कैसे शुद्ध हो ? अंतःकरण शुद्ध नहीं किया जा सकता। करेगा कौन? और जो शुद्ध है ही, वह शुद्ध कैसे किया जा सकता है? पर जाना जा सकता है कि शुद्ध है। कैसे जाना जा सकता है? एक ही रास्ता है - पीछे हटें, पीछे हटें, अपने को पीछे हटाएं, ' अपनी चेतना को सिकोड़ें, जैसे कछुआ अपने अंगों को सिकोड़ | लेता है । शरीर को भूलें, इंद्रियों को भूलें । छोड़ें बाहर की परिधि को, और भीतर चलें। अंतस - इंद्रियों को छोड़ें, और भीतर चलें। स्मृति को छोड़ें, और भीतर चलें । भीतर याद आ रही है, शब्द आ रहे हैं, विचार आ रहे हैं, स्मृति आ रही है । छोड़ें; कहें कि यह भी मैं नहीं हूं। कहें कि नेति नेति, यह भी मैं नहीं हूं। हैं भी नहीं, क्योंकि जो देख रहा है भीतर कि यह स्मृति से विचार आ रहा है, वह अन्य है, वह भिन्न है, वह पृथक है। जानें कि यह मैं नहीं हूं। आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं। निश्चित ही, आप मुझे दिखाई पड़ रहे हैं, पक्का हो गया कि मैं आप नहीं हूं। नहीं तो देखेगा कौन | आपको ? देखने वाला और दिखाई पड़ने वाला भिन्न हैं, दृश्य और द्रष्टा भिन्न हैं। | यह सांख्य का मौलिक साधना - सूत्र है, दृश्य और द्रष्टा भिन्न हैं। फिर सांख्य की सारी साधना इसी भिन्नता के ऊपर गहरे उतरती है । फिर सांख्य कहता है, जो भी चीज दिखाई पड़ने लगे, समझना | कि इससे भिन्न हूं। भीतर से देखें, शरीर दिखाई पड़ता है । और 284
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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