SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 9- विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक mm भीतर देखें, हृदय की धड़कन सुनाई पड़ती है। आप भिन्न हैं। और | के भीतर गए ही नहीं। घर के गर्भ में परम शुद्धि का वास है। उस भीतर देखें, विचार दिखाई पड़ते हैं। आप भिन्न हैं। और भीतर देखें, परम शुद्धि के बीच आत्मा और उस आत्मा के भी बीच परमात्मा और भीतर देखें, समाज की धारणाएं हैं, चित्त पर बहुत सी परतें है। पर वहां गए ही नहीं हम कभी। घर के बाहर घूम रहे हैं। और हैं-वे सब दिखाई पड़ती हैं। और उतरते जाएं। आखिर में उस घर के बाहर की गंदगी है। जगह पहुंच जाते हैं, जहां अंतःकरण है, सब शुद्धतम है। लेकिन एक आदमी घर के बाहर घूम रहा है और सड़क पर गंदगी पड़ी शुद्धतम, वह भी भिन्न है; वह भी अलग है। इसीलिए उसको | है। वह कहता है इस गंदगी को देखकर कि मेरे घर के अंदर भी आत्मा नहीं कहा; उसको भी अंतःकरण कहा। क्योंकि आत्मा उस सब गंदा होगा, उसको मैं कैसे शुद्ध करूं? हम उसे कहते हैं, यह शुद्धतम के भी पार है। शुद्धतम का अनुभव कैसे होगा? आपको | | गंदगी घर के बाहर है। तुम घर के भीतर चलो; वहां कोई गंदगी अशुद्धतम का अनुभव कैसे होता है? नहीं है। तुम इस गंदगी से आब्सेस्ड मत हो जाओ। यह घर के बाहर कोई मुझसे आकर पूछता है, शुद्ध का हम अनुभव कैसे करेंगे? | होने की वजह से है। यहां तक वह शुद्धि की धारा नहीं पहुंच पाती तो उसको मैं कहता हूं कि तुम बगीचे की तरफ चले। अभी बगीचा है, माध्यमों में विकृत हो जाती है, अनेक माध्यमों में विकृत हो जाती नहीं आया, लेकिन ठंडी हवा मालूम होने लगी। तुम्हें कैसे पता चल है। अंदर चलो, भीतर चलो, गो बैक, वापस लौटो। जाता है कि ठीक चल रहे हैं? क्योंकि ठंडी हवा मालूम होने लगी। तो कृष्ण कह रहे हैं, अंतःकरण शुद्ध होता है, ऐसा जिस दिन फिर तुम और बढ़ते हो; सुगंध भी आने लगी; तब तुम जानते हो जाना जाता है, उसी दिन चित्त के सब विक्षेप, चित्त की सारी कि और निकट है बगीचा। अभी बगीचा आ नहीं गया है। शायद विक्षिप्तता खो जाती है—खोनी नहीं पड़ती। अभी दिखाई भी नहीं पड़ रहा हो। और निकट बढ़ते हो, अब इसे ऐसा समझें, एक पहाड़ के किनारे एक खाई में हम बसे हैं। हरियाली दिखाई भी पड़ने लगी। अब बगीचा और निकट आ गया अंधेरा है बहुत। सीलन है। सब गंदा है। पहाड़ को घेरे हुए बादल है। अभी फिर भी हम बगीचे में नहीं पहुंच गए हैं। फिर हम बगीचे घूमते हैं। वे वादी को, खाई को ढक लेते हैं। उनकी वजह से ऊपर के बिलकुल द्वार पर खड़े हो गए। सुगंध है, शीतलता है, हरियाली | | का सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता। उनकी काली छायाएं डोलती हैं है, चारों तरफ शांति और सन्नाटा और एक वेल बीइंग, एक | घाटी में और बड़ी भयानक मालूम होती हैं। स्वास्थ्य का भाव घेर लेता है। और एक आदमी शिखर पर खड़ा है, वह कहता है, तुम पहाड़ ऐसे ही जब कोई भीतर जाता है, तो आत्मा के जितने निकट चढ़ो। लेकिन हम नीचे से पूछते हैं कि इन बादलों से छुटकारा कैसे पहंचता है, उतना ही शांत, उतना ही मौन, उतना ही प्रफल्लित. होगा? ये काली छायाएं सारी घाटी को घेरे हए हैं: इनसे मक्ति कैसे उतना ही प्रसन्न, उतना ही शीतल होने लगता है। जैसे-जैसे भीतर | होगी? वह आदमी कहता है, तुम इनकी फिक्र छोड़ो, तुम पहाड़ चलता है, उतना ही प्रकाशित, उतना ही आलोक से भरने लगता | चढ़ो। तुम उस जगह आ जाओगे, जहां तुम पाओगे कि बदलियां है। जैसे-जैसे भीतर चलने लगता है, कदम-कदम भीतर सरकता | नीचे रह गई हैं और तुम ऊपर हो गए हो। और जिस दिन तुम है, कहता है, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। पहचानता | पाओगे कि बदलियां नीचे रह गई हैं और तुम ऊपर हो गए हो, उस है, रिकग्नाइज करता है-यह भी नहीं। यह दृश्य हो गया, तो मैं | दिन बदलियां तुम पर कोई छाया नहीं डालतीं। नहीं हूं। मैं तो वहां तक चलूंगा, जहां सिर्फ द्रष्टा रह जाए। तो द्रष्टा | | बदलियां सिर्फ उन्हीं पर छायाएं डालती हैं, जो बदलियों के नीचे जब अंत में रह जाए, उसके पहले जो मिलता है, वह अंतःकरण है। हैं। बदलियां उन पर छाया नहीं डालती, जो बदलियों के ऊपर हैं। अंतःकरण जो है, वह अंतर्यात्रा का आखिरी पड़ाव है। आखिरी | अगर कभी हवाई जहाज में आप उड़े हैं, तो बदलियां फिर आप पर पड़ाव, मंजिल नहीं। मंजिल उसके बाद है। . छाया नहीं डालतीं। बदलियों का वितान नीचे रह जाता है, आप यह अंतःकरण शुद्ध ही है, इसीलिए सांख्य की बात कठिन है।। ऊपर हो जाते हैं। लेकिन पृथ्वी पर बदलियां बहुत छाया डालती हैं। कोई हमें समझाए कि शुद्ध कैसे हो, तो समझ में आता है। सांख्य | मन के जो विक्षेप हैं, विक्षिप्तताएं हैं, विकार हैं, वे बदलियों कहता है, तुम शद्ध हो ही। तुम कभी गए ही नहीं वहां तक जानने, की तरह हैं। और हम पर छाया डालते हैं, क्योंकि हम घाटियों में जहां शुद्धि है। तुम बाहर ही बाहर घूम रहे हो घर के। तुम कभी घर | जीते हैं। 285/
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy