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- गीता दर्शन भाग-1-m
प्रश्नः भगवान श्री, लक्ष्य के साथ क्रियाएं बनती हैं क्योंकि आत्मा नित्य है, इसलिए शोक करना अयुक्त है।
और निश्चित परिणाम की इच्छा रहती है। अगर हर वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था, समय चित्त निरहंकार या निर्विचार रहा, तो क्रियाएं अथवा तू नहीं था, अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा कैसे होंगी? निर्विचार मन कुछ व्यक्त कैसे कर सकता ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। है? सब निरंतर निर्विचार रहने से निष्क्रिय हो जाएं, तो समाज कैसे चल सकता है? समाज नष्ट नहीं हो जाएगा?
27 र्जुन ऐसी चिंता दिखाता हुआ मालूम पड़ता है कि ये I सब जो आज सामने खड़े दिखाई पड़ रहे हैं, युद्ध में
मर जाएंगे, नहीं हो जाएंगे। कृष्ण उसे कहते हैं, जो है, निरहंकार होने से कोई निष्क्रिय नहीं होता है; न ही वह सदा से था; जो नहीं है, वह सदा ही नहीं है। .
। निर्विचार होने से कोई निष्क्रिय होता है। निरहंकार होने इस बात को थोड़ा समझ लेना उपयोगी है।
से सिर्फ कर्ता का भाव चला जाता है। लेकिन कर्म | धर्म तो सदा ऐसी बात कहता रहा है, लेकिन विज्ञान ने भी ऐसी परमात्मा को समर्पित होकर पूर्ण गति से प्रवाहित होते हैं। नदी | बात कहनी शुरू की है। और विज्ञान से ही शुरू करना उचित होगा। बहती है, कोई अहंकार नहीं है। हवाएं चलती हैं, कोई अहंकार नहीं क्योंकि धर्म शिखर की बातें करता है, जिन तक सबकी पहुंच नहीं है। फूल खिलते हैं, कोई अहंकार नहीं है। ठीक ऐसे ही सहज, | | है। विज्ञान आधार की बातें करता है, जहां हम सब खड़े हैं। विज्ञान निरहंकारी जीवन से सब कुछ होता है, सिर्फ भीतर कर्ता का भाव | की गहरी से गहरी खोजों में एक खोज यह है कि अस्तित्व को संगृहीत नहीं होता है।
अनस्तित्व में नहीं ले जाया जा सकता है। जो है, उसे विनष्ट करने इसलिए सुबह जो मैंने कहा कि अर्जुन का अहंकार ही पूरे समय | | का कोई उपाय नहीं है। और जो नहीं है, उसका सृजन करने का भी उसकी पीड़ा और उसका संताप बना है। इसका यह अर्थ नहीं कि | कोई उपाय नहीं है। रेत के एक छोटे से कण को भी हमारे विज्ञान वह अहंकार छोड़ दे, तो कर्म छूट जाएगा।
की सारी जानकारी और सारे जगत की प्रयोगशालाएं और सारे . और जैसा मैंने कहा कि विचार मनुष्य को चिंता में डालता है; जगत के वैज्ञानिक मिलकर भी विनष्ट नहीं कर सकते हैं; रूपांतरित निर्विचार हो जाए चित्त, तो चिंता के बाहर हो जाता है। इसका यह भर कर सकते हैं; नए रूप भर दे सकते हैं। अर्थ नहीं है कि निर्विचार चित्त फिर बोलेगा नहीं, करेगा नहीं, जिसे हम सृजन कहते हैं, क्रिएशन कहते हैं, वह भी नए रूप का अभिव्यक्ति नहीं रहेगी।
| निर्माण है-नए अस्तित्व का नहीं, एक्झिस्टेंस का नहीं—फार्म नहीं, ऐसा नहीं है। निर्विचार चित्त बांस की पोंगरी की तरह हो | | का। और जिसे हम विनाश कहते हैं, वह भी अस्तित्व का विनाश जाएगा। गीत उससे बहेंगे, लेकिन अपने नहीं, परमात्मा के ही | | नहीं है, सिर्फ रूप का, आकृति का। आकृतियां बदली जा सकती बहेंगे। विचार उससे निकलेंगे, लेकिन अपने नहीं, परमात्मा के | | हैं, लेकिन जो आकृति में छिपा है, वह अपरिवर्तित है। करीब-करीब ही निकलेंगे। समस्त के प्रति समर्पित होगा वैसा चित्त। बोलेगा | | ऐसा, जैसे कि गाड़ी का चाक चलता है, घूमता है; लेकिन एक वही. जो परमात्मा बलाता है. करेगा वही. जो परमात्मा कराता है। कील है. जो खडी है. जिस पर चाक घमता रह स्वयं के बीच का जो मैं का आधार है, वह बिखर जाएगा। इसके | ही जानते हैं, वे कहेंगे, सब परिवर्तन है। जो कील को भी जानते बिखरते ही चिंता नहीं है। इसके बिखरते ही कोई संताप, कोई | हैं, वे कहेंगे, सब परिवर्तन के मूल में, केंद्र पर ठहरा हुआ भी कुछ एंग्जाइटी नहीं है।
है, अनमूविंग भी कुछ है। ___ और बड़े मजे की बात यह है कि अगर चाक से कील अलग
कर लें, तो चाक जरा भी घूम न पाएगा। चाक का घूमना उस पर न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। | निर्भर है, जो नहीं घूमता है। रूप बदलते हैं। रूप का बदलना उस न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ।। १२ ।। | पर निर्भर है, जो अरूप है, फार्मलेस है और नहीं बदलता है।