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________________ mm गीता दर्शन भाग-1 AM प्रश्नः भगवान श्री, अट्ठाइसवें श्लोक पर सुबह बात निश्चित ही है। एक वृक्ष के नीचे खड़े हैं। पत्ते हवाओं में हिल रहे हैं। सूरज की अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। रोशनी में पत्ते चमक रहे हैं। एक-एक पत्ता अलग-अलग मालूम अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिवेदना।। | होता है। और अगर पत्ते सचेतन हो जाएं, अगर एक-एक पत्ता होश इसमें कहा गया है कि आदि में अप्रकट, अंत में | | | से भर जाए, तो सोच भी न पाएगा कि साथ का जो पड़ोसी पत्ता है, अप्रकट और मध्य में प्रकट है जो, तो यह जो | वह और मैं कहीं एक हैं, कहीं नीचे शाखा पर जुड़े हैं। पड़ोस में मैनिफेस्टेड है, प्रकट है, इसमें ही द्वैतता का अनुभव | हिलते हुए पत्ते को देखकर जागा हुआ, होश में आ गया पत्ता होता है। और जो अप्रकट है, उसमें अद्वैत का दर्शन सोचेगा, कोई पराया है। किया जाता है। तो यह जो मध्य में मैनिफेस्टेड है, सोचना ठीक भी है; तर्कयुक्त भी है। क्योंकि पड़ोस में कोई पत्ता उसमें जो द्वैतता है, डुअलिज्म है, उसका परिहार करने | बूढ़ा हो रहा है और यह पत्ता तो अभी जवान है। अगर ये दोनों एक के लिए आप कोई विशेष प्रक्रिया का सूचन देंगे? | होते, तो दोनों एक साथ बूढ़े हो गए होते। पड़ोस में कोई पत्ता गिरने के करीब है, पीला होकर सूखकर गिर रहा है। गिर गया है कोई, जमीन पर सूखा पड़ा है, हवाओं में उड़ रहा है। अगर वह इस पत्ते 27 व्यक्त है प्रारंभ में, अव्यक्त है अंत में; मध्य में व्यक्त | | से एक होता, तो वह वृक्ष पर और जिससे एक है, वह पृथ्वी पर 01 का जगत है। कैसे हो सकता था! वह हरा है, कोई सूख गया है। वह नवान है, जिब्रान ने कहीं कहा है, एक रात, अंधेरी अमावस की | | कोई बूढ़ा हो गया है। कोई अभी बच्चा है, किसी की अभी कोंपल रात में, एक छोटे-से झोपड़े में बैठा था, मिट्टी का एक दीया | | फूटती है। उस पत्ते का सोचना ठीक ही है कि वह अलग है। जलाकर। टिमटिमाती थोड़ी-सी रोशनी थी। द्वार के बाहर भी | | लेकिन काश! यह पत्ता बाहर से न देखे। अभी बाहर से देख अंधकार था। भवन के पीछे के द्वार के बाहर भी अंधकार था। सब रहा है, देख रहा है दूसरे पत्ते को। काश! यह पत्ता अपने भीतर देख ओर अंधकार था। केवल उस छोटे-से झोपड़े में उस दीए की | | सके और भीतर उतरे, तो क्या बहुत दूर वह रस-धार है, जहां से थोड़ी-सी रोशनी थी। और एक रात का पक्षी फड़फड़ाता हुआ | ये दोनों पत्ते जुड़े हैं! वह भी जो बूढ़ा, वह भी जो जवान; वह भी झोपड़े के द्वार से प्रविष्ट हुआ, उसने दो या तीन चक्कर झोपड़े के जो आ रहा है, वह भी जो जा रहा है; क्या वह रस-धार बहुत दूर टेमाती रोशनी में लगाए, और पीछे के द्वार से बाहर हो । है? यह पत्ता अपने भीतर उतरे, स्वयं में उतरे, तो उस शाखा को गया। जिब्रान ने उस रात अपनी डायरी में लिखा कि उस पक्षी को | | जरूर ही देख पाएगा, जान पाएगा, जहां से सब पत्ते निकले हैं। अंधेरे से प्रकाश में दो क्षण के लिए आते देखकर, फिर प्रकाश में | लेकिन फिर वह शाखा भी समझ सकती है कि दूसरी शाखा से दो क्षण फड़फड़ाते देखकर और फिर गहन अंधकार में खो जाते | | अन्य है, भिन्न है। वह शाखा भी भीतर उतरे, तो उस वृक्ष को खोज देखकर मुझे लगा कि जीवन भी ऐसा ही है। लेने में बहुत कठिनाई नहीं है, जहां सभी शाखाएं जुड़ी हैं। लेकिन अव्यक्त है प्रारंभ में, अव्यक्त है बाद में; दो क्षण की व्यक्त की। | वह वृक्ष भी सोच सकता है कि पड़ोस में खड़ा हुआ वृक्ष और है, फड़फड़ाहट है। दो क्षण के लिए वह जो मैनिफेस्टेड है, वह जो | | अन्य है। लेकिन वह वृक्ष भी नीचे उतरे, तो क्या उस पृथ्वी को प्रकट है, उसमें फल खिलते हैं, पत्ते आते हैं, जीवन हंसता है, रोता खोजना बहत कठिन होगा, जिस पर कि दोनों वक्ष जड़े हैं और एक है और फिर खो जाता है। अव्यक्त में अद्वैत है—पहले भी, अंत | ही रस-धार से जीवन को पाते हैं! पृथ्वी भी सोचती होगी कि दूसरे में भी, दोनों ओर। मध्य में द्वैत है; द्वैत ही नहीं है, अनेकत्व है। दो | ग्रह-मंडल, तारे, चांद, सूरज अलग हैं। काश! पृथ्वी भी अपने ही नहीं हैं, अनेक हैं। सब चीजें पृथक-पृथक मालूम होती हैं। भीतर उतर सके, तो जैसे पत्ते ने उतरकर जाना, वैसे पृथ्वी भी तो पूछ रहे हैं कि उस अपृथक को, उस अभिन्न को, उस एक | जानती है कि सारा ब्रह्मांड भीतर एक से जुड़ा है! . को, उस अद्वय को, उस मूल को और आदि को, मध्य के इन व्यक्त | दो ही रास्ते हैं देखने के। एक रास्ता है जो तू से शुरू होता है, क्षणों में जानने का क्या कोई प्रयोग है? | और एक रास्ता है जो मैं से शुरू होता है। जो रास्ता तू से शुरू होता
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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