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________________ जीवन की परम धन्यता है, वह अनेक के दर्शन में ले जाता है। जो रास्ता मैं से शुरू होता है, वह एक के दर्शन में ले जाता है। जो तू से शुरू होता है, वह अनमैनिफेस्टेड में नहीं ले जाएगा, वह अव्यक्त में नहीं ले जाएगा, वह व्यक्त में ही ले जाएगा। क्योंकि दूसरे के तू को हम बाहर से ही छू सकते हैं, उसकी आंतरिक गहराइयों में उतरने का कोई उपाय नहीं, हम उसके बाहर ही घूम सकते हैं। भीतर तो हम सिर्फ स्वयं ही उतर सकते हैं। इसलिए प्रत्येक के भीतर वह सीढ़ी है, जहां से वह उतर सकता है वहां, जहां अब भी अव्यक्त है । सब व्यक्त नहीं हो गया है। सब कभी व्यक्त हो भी नहीं सकता। अनंत है अव्यक्त । क्योंकि जो अद्वैत है, वह अनंत भी होगा; और जो व्यक्त है, वह सीमित भी होगा । व्यक्त की सीमा है, अव्यक्त की कोई सीमा नहीं है। जो अव्यक्त है, वह अनंत है, वह अभी भी है। उस बड़े सागर पर बस एक लहर प्रकट हुई है। उस लहर ने सीमा बना ली है। वह सागर असीम है। लेकिन अगर लहर दूसरी लहर को देखे, तो सागर तक कभी न पहुंच पाएगी। दूसरी लहर से सागर तक पहुंचने का कोई भी उपाय नहीं है। क्योंकि दूसरी लहर के भीतर ही पहुंचने का कोई उपाय नहीं है । हम सिर्फ अपने ही भीतर उतर सकते हैं। और अपने ही भीतर उतरकर सबके भीतर उतर सकते हैं। स्वयं में उतरना पहली सीढ़ी है, स्वयं में उतरते ही सर्व में उतरना हो जाता है। और यह बड़े मजे की बात है कि जो दूसरे में उतरता है, उसको लगता है कि मैं हूं। और जो मैं में उतरता है, उसे लगता है, मैं नहीं हूं, सर्व है । मैं की सीढ़ी पर उतरते ही पता चलता है कि मैं भी खो गया, सर्व ही रह गया। लेकिन हम जीवन में सदा दूसरे से शुरू करते हैं, दि अदर । बस वह दूसरे से ही हम सब सोचते हैं। अपने को छोड़कर ही हम चलते हैं, उसको बाद दिए जाते हैं। जन्मों-जन्मों तक एक चीज को हम छोड़ते चले जाते हैं, निग्लेक्ट किए जाते हैं, एक चीज के प्रति हमारी उपेक्षा गहन है— स्वयं को हम सदा ही छोड़कर चलते हैं। सब जोड़ लेते हैं, सब हिसाब में ले लेते हैं। बस वह एक, जो अपना होना है, उसे हिसाब के बाहर रख देते हैं। -स्वधर्म की पूर्णता में 4 बह न गया हो ! तो उन्होंने गिनती की। निश्चित ही, गिनती उन्होंने वैसी ही की जैसी हम करते हैं। लेकिन बड़ी मुश्किल हो गई । थे तो दस, लेकिन गिनती में नौ ही निकले। एक ने की, दूसरे ने की, तीसरे नेकी, फिर तो कन्फर्म हो गया कि नौ ही बचे हैं, एक खो गया। जैसे सभी की जिंदगी का ढंग एक ही था - हम सभी का | है – प्रत्येक ने स्वयं को छोड़कर गिना । गिनती नौ हुई। अब वह जो एक खो गया, उसके लिए बैठकर वे रोने लगे। यह भी पक्का पता नहीं चलता था कि वह कौन खो गया ! ऐसे शक भी होता है। कि कोई नहीं खोया। लेकिन शक ही है, क्योंकि गणित कहता है। कि खो गया। अब गणित इतना प्रामाणिक मालूम होता है कि अब शक को अलग ही हटा देना उचित है। रो लेना भी उचित है, क्योंकि जो खो गया मित्र, उसके लिए अब और तो कुछ कर नहीं सकते। | वे वहां बैठकर एक वृक्ष के नीचे रोते हैं। वहां से एक फकीर गुजरा है। उसने पूछा कि क्या हुआ ? क्यों रोते हो ? उन्होंने कहा, एक साथी खो गया है। दस चले थे उस पार से, अब गिनते हैं तो नौ ही हैं। वे फिर छाती पीटकर रोने लगे। उस फकीर ने नजर डाली और देखा कि वे दस ही हैं। पर समझा वह फकीर । संसारी आदमी की बुद्धि और संसारी आदमी के गणित को भलीभांति जानता था। जानता था कि संसारी की भूल ही एक है। वही भूल दिखता है, हो गई है। aa ने एक किताब लिखी है, दि टेंथ मैन, दसवां आदमी । और बहुत पुरानी भारतीय कथा से वह किताब शुरू की है। उस कहानी से हम सब परिचित हैं, कि दस आदमियों ने नदी पार की। वर्षा थी, बाढ़ थी। नदी पार उतरकर सहज ही उन्होंने सोचा कि कोई उसने कहा, जरा फिर से गिनो। लेकिन एक काम करो, मैं एक - एक आदमी के गाल पर चांटा मारता हूं। जिसको मैं चांटा मारूं, वह बोले, एक ! दूसरे को मारूं, दो! तीसरे को मारूं, तीन ! मैं चांटा मारता चलता हूं। चांटा इसलिए, ताकि तुम याद रख सको कि तुम छूट नहीं गए हो। 153 बड़ी हैरानी हुई, गिनती दस तक पहुंच गई। वे बड़े चकित हुए और उन्होंने कहा, क्या चमत्कार किया? यह गिनती दस तक कैसे पहुंची? हमने बहुत गिना, लेकिन नौ पर ही पहुंचती थी! | दुनिया में उस फकीर ने कहा, दुनिया में गिनने के दो ढंग दो तरह के गणित हैं। एक गणित जो तू से शुरू होता है और एक | गणित जो मैं से शुरू होता है । जो गणित तू से शुरू होता है, वह गणित कभी भी अव्यक्त में नहीं ले जाएगा। नहीं ले जाएगा इसलिए कि तू के भीतर प्रवेश का द्वार ही नहीं है। जो गणित मैं से शुरू होता है, वह अव्यक्त में ले जाता है। इसलिए धर्म की परम अनुभूति परमात्मा है । और धर्म का प्राथमिक चरण आत्मा है। आत्मा से शुरू करना पड़ता है,
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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