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________________ + गीता दर्शन भाग - 14 परमात्मा पर पूर्णता होती है। स्वयं से चलना पड़ता है, सर्व में निष्पत्ति होती है। तो अपने भीतर से गिनती शुरू करें। अभी भी आपके भीतर अव्यक्त मौजूद है। झांकते ही नहीं वहां, यह दूसरी बात है। आपके भीतर अव्यक्त मौजूद है। इसे थोड़ा समझ लेना उचित होगा कि अव्यक्त आपके भीतर. कैसे है! आपके ठीक पैरों के नीचे है। जिस जमीन पर आप खड़े हैं, वहीं ! वहीं थोड़े ही दो कदम नीचे। चले नहीं कि अव्यक्त मौजूद है कौन चला रहा है आपकी श्वास को ? आप? तो जरा बंद करके देखें, तो पता चलेगा, आप नहीं चला रहे हैं। जरा रोकें, तो पता चल जाएगा, आप नहीं चला रहे हैं। श्वास धक्के देगी और चलेगी, तब आपको पता चलेगा, आपके नीचे से भी कोई और गहरे में इसे चला रहा है। खून चल रहा है चौबीस घंटे, आप नहीं चला रहे हैं। आपने कभी चलाया नहीं, चलाना पड़ता तो बहुत मुश्किल में पड़ जाते। वह काम ही इतना होता कि और कोई काम न बचता। और मिनट दो मिनट भी चूक जाते, भूल जाते, तो समाप्ति हो जाती। वह श्वास आदमी पर अगर होती चलाने की, तो दुनिया में आदमी बचता नहीं, कभी का समाप्त हो गया होता। • एक क्षण चूके कि गए। नहीं, आप सोए रहें, बेहोश पड़े रहें, शराब पीए पड़े रहें, वह श्वास चलती रहेगी, वह खून दौड़ता रहेगा। खाना तो आप खा लेते हैं, पचाता कौन है? आप ? अभी तक बड़ी से बड़ी वैज्ञानिक प्रयोगशाला रोटी को खून में बदलने में समर्थ नहीं हो पाई है। और वैज्ञानिक कहते हैं कि आदमी का छोटा-सा पेट जो करता है, अगर किसी दिन हम समर्थ हुए, तो कम से कम सैकड़ों मील जगह घेरे, इतनी बड़ी फैक्टरी और लाखों लोग काम करें, इतना इंतजाम, एक आदमी के पेट में जो रहा है, उसके लिए करना पड़ेगा। लेकिन फिर भी पक्का नहीं है कि यह हो सकेगा। कौन चला रहा है? आप ? आती, नहीं आती, नहीं आती। सच तो यह है कि जितने उपाय | करता है, उतनी ही नहीं आती। और अगर कभी आती है तो उसके | उपाय की वजह से नहीं आती, उपाय कर-कर के थक गया होता है, तब आती है। नींद ला नहीं सकते आप कि ले आएं। कहां से आती है? आपके भीतर अव्यक्त से आती है। मनोवैज्ञानिक से पूछें, तो उसे थोड़ी-सी समझ मिली है उस अव्यक्त की, उसे वह अनकांशस कह रहा है। वह कह रहा है, अचेतन से आती है। पैर पर चोट लग गई है। तत्काल, तत्काल मवाद से भर जाता है घाव | आपने कुछ किया? आपने कुछ भी नहीं किया। लेकिन | पता नहीं, पूरे शरीर से वे जीवाणु दौड़कर उस घाव के पास पहुंच जाते हैं। जिसको आप मवाद कहते हैं, वह मवाद नहीं है; वह उन जीवाणुओं की पर्त है, जो तत्काल उसे चारों तरफ से घेर लेते हैं, | बाहर के जगत से सुरक्षा देने के लिए। चमड़ी तो टूट गई है, दूसरी पर्त चाहिए। वह पर्त उसे घेर लेती है। और भीतर अव्यक्त तत्काल, जो घाव बन गया है, उसे ठीक करने में लग जाता है। साधारण चिकित्सक सोचता है कि हम ठीक कर देते हैं बीमारी को। लेकिन जो असाधारण चिकित्सक हैं जगत में, जो जरा गहरे उतरे हैं मनुष्य की बीमारी में, वे कहते हैं कि नहीं, ज्यादा से ज्यादा हम थोड़ा-सा सहयोग पहुंचाते हैं; इतना भी कहना अतिशयोक्ति | है। शायद इतना ही कहना उचित है कि हम थोड़ी-सी बाधाएं अलग. करते हैं; बाकी हीलिंग फोर्स भीतर से आती है। और अब तो मनोवैज्ञानिक निरंतर इतने गहरे उतर रहे हैं, वे | कहते हैं कि अगर एक आदमी के भीतर जीने की इच्छा चली गई | है, तो घाव भरना मुश्किल हो जाता है। अगर एक आदमी के भीतर | से जीवन की इच्छा चली गई है, तो बीमारी को चिकित्सा ठीक नहीं कर पाती। क्योंकि अव्यक्त जीने की जो शक्ति थी, वह देनी | बंद कर दी, वापस ले ली। बूढ़े आदमी के शरीर में कोई बुनियादी फर्क नहीं हो गए होते हैं। लेकिन अव्यक्त सिकुड़ने लगता है। वह शक्ति वापस लौटने लगती है । उतार शुरू हो गया। अगर हम अपने भीतर थोड़ा-सा झांकें, तो हमें पता चलेगा कि हम जहां जी रहे हैं, वह शायद किसी एक बहुत बड़ी ऊर्जा का ऊपरी शिखर है। बस उस शिखर से ही हम परिचित हैं, उसके पीछे हम बिलकुल परिचित नहीं हैं। उसके पीछे अव्यक्त अभी भी मौजूद है। सभी व्यक्त घटनाओं के पीछे अव्यक्त मौजूद है। सभी दृश्य घटनाओं के पीछे अदृश्य मौजूद है। सभी चेतन घटनाओं के पीछे अचेतन मौजूद है। सभी दिखाई पड़ने वाले जगत और रूप के पीछे निश्चित ही, एक बात पक्की है कि आप नहीं चला रहे हैं। तो आपके भीतर अव्यक्त, आपके भीतर छिपी हुई कोई ताकत, आपके मैं की सीमा के पार... ! आप सोते हैं रोज । लेकिन इस भ्रांति में मत पड़ना कि आप सोते हैं, क्योंकि सोना कोई एक्ट नहीं है, कोई क्रिया नहीं है। भाषा में है। भाषा से कोई लेना-देना नहीं है। सोना बिलकुल ही क्रिया नहीं है। क्योंकि जिसको नींद नहीं आती है, उसको भलीभांति पता है कि कितनी ही करवट बदलता है, कितने ही उपाय करता है, नहीं। 154
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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