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परमात्म समर्पित कर्म 4
डेविड ह्यूम ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि मैंने डेल्फी के मंदिर पर लिखा हुआ वचन पढ़ा- नो दाई सेल्फ- अपने को जानो, और तब से मैं अपने भीतर जाकर कोशिश करता हूं कि अपने को जानूं। लेकिन मैं तो स्वयं को कहीं मिलता ही नहीं हूं; जब भी मिलता है भीतर कोई इच्छा मिलती है, कोई विचार मिलता है, कोई वासना मिलती है, कोई कामना मिलती है। मैं तो कभी भीतर मिलता ही नहीं हूं। मैं थक गया खोज खोजकर । जब भी मिलती है— कोई वासना, कोई कामना, कोई इच्छा, कोई विचार, कोई स्वप्न – मैं तो कहीं मिलता ही नहीं हूं।
मिलेगा भी नहीं। क्योंकि स्वयं को जानने के पहले वासनाओं के बीच में स्वयं की सत्ता को भी तो अंकुरित करना पड़ेगा। वह
ह्यूम ठीक कहता है । आप भी भीतर जाएंगे, तो आत्मा नहीं मिलेगी, विचार मिलेंगे, वासनाएं मिलेंगी, इच्छाएं मिलेंगी। आत्मा ..तो संकल्प के द्वार से ही मिल सकती है।
इसलिए निश्चित ही धर्म का पहला चरण है, संकल्प को निर्मित करो, क्रिएट दि विल फोर्स और दूसरा चरण है, निर्मित संकल्प को सरेंडर करो, समर्पण करो। पहला चरण है, आत्मवान बनो; दूसरा चरण है, आत्मा को परमात्मा के चरणों में फूल की तरह चढ़ा
। पहला चरण है, आत्मा को पाओ; दूसरा चरण है, परमात्मा को पाओ। आत्मा को पाना हो तो वासनाओं से ऊपर उठना पड़ेगा। और परमात्मा को पाना हो तो आत्मा से भी ऊपर उठना पड़ेगा। आत्मा को पाना हो तो वासनाओं पर वश चाहिए; और परमात्मा को पाना हो तो आत्मा पर भी वश चाहिए। वह लेकिन दूसरा चरण है । वह इसके विपरीत नहीं है। वह इसी का आगे का कदम है। जिसके पास है, वही तो समर्पित कर सकेगा।
जीसस का एक बहुत अदभुत वचन है, वह मैं आपको याद दिलाऊं, वह कृष्ण की बात के बहुत करीब है। जीसस ने कहा है, जो अपने को बचाएगा, वह अपने को खो देगा; और जो अपने को खो देगा, वह अपने को बचा लेगा। लेकिन खोने या बचाने के पहले होना भी तो चाहिए। आप हैं ?
गुरजिएफ के पास कोई जाता था और पूछता था कि मैं स्वयं को जानना चाहता हूं, तो वह गुरजिएफ कहता था, आप हो ? आर यू? आप भी चौंकेंगे, अगर आप जाएं ऐसे आदमी के पास और वह पूछे, आप हो? तो आप कहेंगे, हूं तो ! लेकिन आपका होना सिर्फ एक जोड़ है। आपमें से सारी वासनाएं निकाल ली जाएं, और सारी इच्छाएं और सारे विचार, तो आप एकदम खो जाएंगे शून्य की
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भांति | आपके पास ऐसा कोई संकल्प नहीं है, जो विचार के पार हो, वासना से अलग हो, इच्छाओं से भिन्न हो। आपके पास आत्मा का कोई भी अनुभव नहीं है। आप सिर्फ एक जोड़ हैं, एक एक्युमुलेशन, एक संग्रह। इस संग्रह को कहां समर्पित करिएगा ? कौन समर्पित करेगा? समर्पित करने वाला भी भीतर नहीं है।
इसलिए कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं, पहले तू श्रेष्ठ बन । श्रेष्ठ बनने का अर्थ, पहले तू आत्मवान बन, पहले तू मनस्वी हो, पहले तू संकल्प को उपलब्ध हो। फिर पीछे वे कहेंगे कृष्ण अर्जुन से, सब छोड़ दे और शरण में आ जा। लेकिन छोड़ तो वही सकता है सब, जिसके पास संकल्प हो। लेकिन जो जरा-सा कुछ भी नहीं छोड़ सकता, वह सब कैसे छोड़ सकेगा ! जो एक पैसा नहीं छोड़ सकता, वह स्वयं को कैसे छोड़ सकेगा ! जो एक मकान नहीं छोड़ सकता, वह स्वयं की आत्मा को कैसे छोड़ सकेगा ? स्वयं को | छोड़ने के पहले स्वयं का परिपूर्ण शक्ति से होना जरूरी है।
इसलिए संकल्प धर्मों की पहली साधना है; समर्पण अंतिम साधना है । कहें कि धर्म के दो ही कदम हैं। पहले कदम का नाम है, संकल्प, विल; और दूसरे कदम का नाम है, समर्पण, सरेंडर | इन दो कदमों में यात्रा पूरी हो जाती है। जो संकल्प पर रुक जाएंगे, उनको आत्मा का पता चलेगा, लेकिन परमात्मा का कोई पता नहीं चलेगा। जो वासना पर ही रुक जाएंगे, उनको वासना का पता चलेगा, आत्मा का कोई पता नहीं चलेगा। लेकिन जो आत्मा को भी समर्पित कर देंगे, उन्हें परमात्मा का पता चलता है। वह अंतिम घटना है, वह अल्टिमेट है। वह चरम, परम अनुभूति है । और उसके लिए कृष्ण अर्जुन को अ, ब, स से शुरू कर रहे हैं। वे उससे कह रहे हैं, पहले तू संकल्पवान बन। फिर पीछे जब देखेंगे कि उसके भीतर संकल्प पैदा हुआ है, तो वे उससे कहेंगे, अब तू सब छोड़ दे - सर्व धर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज - अब तू सब छोड़ और मेरी शरण में आ जा ।
लेकिन शरण में कमजोर लोग कभी नहीं आ सकते। यह सुनकर आपको कठिनाई होगी। आमतौर से कमजोर लोग शरण में जाते हैं। कमजोर आदमी कभी शरण में नहीं जा सकता। कमजोर आदमी | के पास इतनी शक्ति ही नहीं होती कि दूसरे के चरणों में अपने को पूरा समर्पित कर दे। समर्पण बड़ी से बड़ी शक्ति है - बहुत कठिन, | बहुत आरडुअस । आसान बात मत समझ लेना आप समर्पण | आमतौर से लोग समझते हैं कि हम कमजोर हैं, हम तो समर्पण में ही भगवान को पा लेंगे। लेकिन कमजोर समर्पण कर नहीं सकता।