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________________ गीता दर्शन भाग-1 गुरजिएफ है। गुरजिएफ एक छोटा-सा प्रयोग अपने साधकों को कराता था। बहुत छोटा। कभी आप भी करें, तो बहुत हैरान होंगे और आपको पता चलेगा कि संकल्प का अनुभव क्या है। उस प्रयोग को वह कहता था, स्टाप एक्सरसाइज । वह अपने साधकों को बिठा लेता और वह कहता कि मैं अचानक कहूंगा, स्टाप ! तो तुम जहां हो, वहीं रुक जाना। अगर किसी ने हाथ उठाया था, तो वह हाथ यहीं रुक जाए; अगर किसी की आंख खुली थी, तो वह खुली रह जाए; अगर किसी ने बोलने को ओंठ खोले थे, तो वे खुले रह जाएं; अगर किसी ने चलने के लिए कदम उठाया था एक और एक जमीन पर था, तो वहीं रह जाए। स्टाप ! ठहर जाओ! तो जो जहां है, वह वहीं ठहर जाए; वैसा ही ठहर जाए। और जिन साधकों पर वह दो-तीन महीने प्रयोग करता इस छोटे-से अभ्यास का, उन साधकों को पता चलता कि जैसे ही वे ठहरते हैं, शरीर तो कहता है, पैर नीचे रखो; आंख तो कहती है, पलक झपकाओ; ओंठ तो कहते हैं, बंद कर लो; लेकिन वे रुक गए हैं- -न आंख झपकेंगे, न पैर हटाएंगे, न हाथ हिलाएंगेमूर्ति की तरह रह गए हैं। तीन महीने के थोड़े-से अभ्यास में ही उन्हें पता चलना शुरू होता है कि उनके भीतर कोई एक और भी हैं, जो शरीर को जहां चाहे वहां आज्ञा दे सकता है। - अब कभी आपने अपने शरीर को आज्ञा दी है? कभी भी आपने आदेश दिया है? आपने सिर्फ आदेश लिए हैं; आपने कभी भी आदेश दिया नहीं है। वन वे ट्रैफिक है अभी। शरीर की तरफ से आदेश आते हैं, शरीर की तरफ कोई आदेश जाता नहीं है; कभी नहीं जाता है। उसके परिणाम खतरनाक हैं। उसका बड़े से बड़ा परिणाम है वह यह है कि हमें कल्पना ही मिट गई है कि हमारे भीतर विल जैसी, संकल्प जैसी भी कोई चीज है ! और जिस व्यक्ति के पास संकल्प नहीं है, वह व्यक्ति श्रेष्ठ नहीं हो सकता। संकल्पहीनता ही निकृष्टता है। संकल्पवान होना ही आत्मवान होना है। कृष्ण कह रहे हैं, अर्जुन ! वह मनुष्य श्रेष्ठ है, जो अपनी इंद्रियों पर वश पा लेता है। जो इंद्रियों का मालिक हो जाता है। जो इंद्रियों को आज्ञा दे सकता है। जो कह सकता है, ऐसा करो । हम सिर्फ इंद्रियों से पूछते हैं, क्या करें? हम जिंदगीभर, जन्म से लेकर मृत्यु तक इंद्रियों से पूछते चले जाते हैं, क्या करें? इंद्रियां बताए चली जाती हैं रहम करते चले जाते हैं। इसलिए हम शरीर से ज्यादा कभी कोई अनुभव नहीं कर पाते। आत्म-अनुभव संकल्प से शुरू होता है। और मनुष्य की श्रेष्ठता संकल्प के जन्म के साथ ही यात्रा पर निकलती है। प्रश्नः भगवान श्री कृष्ण यहां मन से इंद्रियों को वश में करने को कह रहे हैं; लेकिन आप तो मन को ही विसर्जित करने को कहते हैं! यह कैसी बात है ? कृ ष्ण भी यही कहेंगे, मन को विसर्जित करने को कहेंगे। लेकिन मन विसर्जित करने के लिए होना भी तो चाहिए! अभी तो मन है ही नहीं । इंद्रियां और इंद्रियों के पीछे दौड़ना हमारा अस्तित्व है । हमारे पास मन जैसी कोई, संकल्प जैसी चीज नहीं है। पहले चरण पर संकल्प पैदा करना पड़ेगा और दूसरे चरण पर संकल्प को भी समर्पित कर देना होगा। लेकिन समर्पित तो वही कर पाएंगे, जिनके पास होगा। जिनके पास नहीं है, वे समर्पित क्या करेंगे! हम एक आदमी से कहते हैं, धन का त्याग कर दो। लेकिन त्याग | के लिए धन तो होना चाहिए न ? जब हम कहते हैं, धन का त्याग कर दो, धन हो ही न, तो त्याग क्या करेगा ? 338 मन आपके पास है या सिर्फ इंद्रियों की आकांक्षाओं के जोड़ का नाम आपने मन समझा हुआ है ? तो जब हमसे कोई कहेगा कि समर्पण कर दो मन को परमात्मा के चरणों में, तो हमारे पास कुछ होता ही नहीं, जिसको हम समर्पण कर दें। हमारे पास केवल दौड़ती | हुई वासनाओं का समूह होता है, जिनको समर्पित नहीं किया जा | सकता। किसी ने कभी कहा है कि वासनाओं को परमात्मा को समर्पित कर दो ? किसी ने कभी नहीं कहा। मन को समर्पित किया जा सकता है। एक इंटिग्रेटेड विल हो, तो समर्पित की जा सकती है । और समर्पण सबसे बड़ा संकल्प है। बड़े से बड़ा, अंतिम संकल्प जो है, वह समर्पण है। समर्पण दूसरे चरण में संभव है। पहले चरण में तो संकल्प ही निर्मित करना पड़ेगा। आत्मा भी तो चाहिए ! परमात्मा के चरणों में नैवेद्य चढ़ाना हो, तो वासनाओं को लेकर पहुंच जाइएगा? आत्मा चाहिए उसके पास चढ़ाने को । आप भी तो होने चाहिए! आप हैं? अगर बहुत खोजेंगे, आप कहीं न पाएंगे कि आप हैं। आप पाएंगे कि यह इच्छा है, वह इच्छा है, यह वासना है, वह वासना है। आप कहां हैं?
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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