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- गीता दर्शन भाग-1
वे ही लोग हैं, जो बहिर्मुखी हैं। कुछ लोग हैं जिन्हें नकारात्मक, शून्य के साथ। निषेधात्मक शब्द प्रीतिकर लगते हैं, वे वे ही लोग हैं, जो अंतर्मुखी इसे ऐसा भी समझ लें। अगर कोई भाव से भरा हुआ व्यक्ति है, हैं। जैसे बुद्ध। तो बुद्ध को नकारात्मक शब्द बड़े प्रीतिकर लगते हैं। | इमोशनल, भावुक, तो उसे पूर्ण की भाषा स्वीकार होगी। और अगर उन्हें परमात्मा भी प्रकट होगा, तो नहीं के रूप में प्रकट होगा, | अगर कोई बहुत बौद्धिक, बहुत इंटलेक्चुअल व्यक्ति है, तो उसे नथिंगनेस के रूप में प्रकट होगा, शून्य के रूप में प्रकट होगा। | नकार की, इनकार की भाषा स्वीकार होगी। तर्क इनकार करता है,
इसलिए बुद्ध ने अपने मोक्ष के लिए जो नाम चुना, वह है। तर्क इलिमिनेट करता है, काटता है-यह भी बेकार, यह भी निर्वाण। अब निर्वाण का मतलब होता है, दीए का बुझ जाना। जैसे | बेकार, यह भी बेकार–फेंकता चला जाता है, उस समय तक जब दीया बुझ जाता है, बस ऐसे ही एक दिन व्यक्ति बुझ जाता है। तब कि फेंकने को कुछ बचता ही नहीं। तब जब कछ फेंकने को नहीं जो रह गया, वह निर्वाण है। कोई बुद्ध से पूछता है कि आपके बचता, तो तर्क भी गिर जाता है। निर्वाण के बाद क्या होगा? तो बुद्ध कहते हैं, दीया बुझ जाता है, ___ कभी आपने देखी है एक दीए की बाती! बाती तेल को जलाती तो फिर क्या होता है? शून्य के साथ एक हो जाता है। तो बुद्ध का है। जब सारे तेल को जला डालती है, फिर खुद जल जाती है। कभी जोर निगेटिव है, नकारात्मक है। वह अंतर्मुखी का जोर है। आपने यह देखा कि बाती को आग की लपट जलाती है, फिर पूरी
दुनिया में जब भी अंतर्मुखी बोलेगा, तो नकार की भाषा बोलेगा, बाती जल जाती है, तो लपट भी बुझ जाती है! निगेशन की भाषा बोलेगा-नहीं, नेति-नेति। वह कहेगा, यह भी | | तर्क इनकार करता चला जाता है-यह भी नहीं, यह भी नहीं, नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं। उस जगह पहुंचना है, जहां कुछ | यह भी नहीं। आखिर में जब कुछ भी इनकार करने को नहीं बचता, भी न बचे। लेकिन जहां कुछ भी न बचे, वहीं सब कुछ बचता है। | तो इनकार करने वाला तर्क भी मर जाता है। श्रद्धा स्वीकार करती एक पाजिटिव भाषा है—यह भी, यह भी, यह भी। अगर सब जुड़ चली जाती है—यह भी, यह भी, यह भी। और जब सब स्वीकार जाए, तो जो बचता है, वह भी सब कुछ है।
| हो जाता है, तो श्रद्धा की भी कोई जरूरत नहीं रह जाती, वह भी ये दो ही ढंग हैं। इनमें किसी भी तरफ आप चुन सकते हैं यात्रा। | गिर जाती है। और जहां तर्क और श्रद्धा दोनों ही गिर जाते हैं, वहां और ये दोनों ढंग बड़े विरोधी मालूम पड़ते हैं। जहां तक ढंग का | | एक ही मुकाम, एक ही मंजिल, एक ही मंदिर आ जाता है। .. संबंध है, विरोधी हैं। लेकिन जहां तक उपलब्धि का संबंध है, कोई | विरोध नहीं है। वहीं पहुंच जाते हैं शून्य से भी। वहीं पहुंच जाते हैं पूर्ण से भी। वहीं पहुंच जाते हैं नेति-नेति कहकर भी। वहीं पहुंच व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। जाते हैं सब में परमात्मा को जानकर, देखते, मानकर, सोचते, तदेकंवद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ।। २ ।। अनुभव करते हुए भी। पहुंचना है वहां, जहां द्वैत न बचे। | हे कष्ण. आप मिले हए वचन से मेरी बद्धि को मोहित-सी
तो द्वैत दो तरह से शून्य हो सकता है, मिट सकता है, या तो सब करते हैं। इसलिए उस एक बात को निश्चय करके कहिए स्वीकृत हो जाए या सब अस्वीकृत हो जाए। या तो सब बंधन गिर
कि जिसमें मैं कल्याण को प्राप्त होऊ।। जाएं और या सब बंधन आत्मा ही हो जाएं, तब भी हो सकता है। या तो बंधन बचें ही नहीं और या फिर बंधन ही सब कुछआत्मा-बन जाएं; तब भी बंधन नहीं बचते।
17 छता है अर्जुन, एक बात निश्चित करके कहिए, ताकि न तो योगी को सांख्य में जाना पड़ता है. न सांख्य को योग में | प मैं इस उलझाव से मुक्त हो जाऊं। लेकिन क्या दूसरे जाना पड़ता है। लेकिन दोनों जहां पहुंच जाते हैं, वह एक ही जगह on की कही बात निश्चय बन सकती है? और क्या दूसरा है। कहीं कोई बदलाहट नहीं करनी पड़ती। वे दोनों ही वहीं ले जाते कितने ही निश्चय से कहे, तो भी भीतर का अनिश्चय गिर सकता हैं। यह प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर देखने की बात है कि है? कृष्ण ने कम निश्चय से नहीं कही सांख्य की बात। कृष्ण ने पूरे उसकी अपनी रुचि, उसका अपना स्वधर्म, उसका अपना लगाव ही निश्चय से कही है कि यही है मार्ग। लेकिन अर्जुन फिर कहता विधायक के साथ है कि नकारात्मक के साथ है, पूर्ण के साथ कि | है, निश्चय से कहिए। इसका क्या अर्थ हुआ?
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