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im+ स्वधर्म की खोज -
अध्याय की दूसरे अध्याय से तुलना नहीं की गई है। एक श्रृंखला भीतर कुछ न बचे, तो बाहर भी खो जाएगा। क्योंकि बाहर फिर दूसरी श्रृंखला से, एक निष्ठा दूसरी निष्ठा से तौली नहीं गई है। किसका बाहर होगा! उसके लिए एक भीतर चाहिए, भीतर के प्रत्येक निष्ठा अपने में परम है। निश्चित ही, जो भी उस निष्ठा से | | कारण ही वह बाहर है। अगर भीतर ही बचे और बाहर बिलकुल पहुंचता है, उसके लिए उससे श्रेष्ठ कोई निष्ठा नहीं रह जाती। | न बचे, तो उसे भीतर कैसे कहिएगा? वह किसी बाहर की तुलना
और अपेक्षा में भीतर है। असल में जैसे आपके कोट का खीसा है।
उसका एक हिस्सा भीतर है, जिसमें आप हाथ डालते हैं; और एक प्रश्नः भगवान श्री, बहिर्मुखी व्यक्ति साधना | | हिस्सा उसका बाहर है, जो लटका हुआ है। क्या आप सोच सकते करते-करते अंतर्मुख होता जाए, तो क्या अपना रास्ता हैं कि कभी ऐसा हो जाए कि खीसे का भीतर ही भीतर बचे और जीवन में आगे जाकर उसे बदलना चाहिए? बाहर न बचे!
__ आपका घर है। कभी आप सोच सकते हैं कि घर का भीतर ही
भीतर बचे और घर का बाहर न बचे! अगर भीतर ही भीतर बचे न हीं; ऐसा होता नहीं। बहिर्मुख व्यक्ति बढ़ते-बढ़ते | और बाहर न बचे, तो भीतर भी न बचेगा। अगर बाहर ही बाहर । सारे ब्रह्म से एक हो जाता है। बहिर्मुख व्यक्ति | बचे और भीतर न बचे, तो बाहर भी न बचेगा। बाहर और भीतर
बढ़ते-बढ़ते उस जगह पहुंच जाता है, जहां बाहर कुछ | एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। शेष नहीं रहता। सारे बहिर से उसका एकात्म हो जाता है। जिस दिन इसलिए दो रास्ते हैं। या तो बाहर को गिरा दो या भीतर को गिरा सारे बहिर से उसका एकात्म हो जाता है, उस दिन भीतर भी कुछ | दो। दोनों गिर जाएंगे और तब जो शेष रह जाएगा, जो बाहर और नहीं रह जाता, बाहर भी कुछ नहीं रह जाता। लेकिन वह बाहर के | भीतर दोनों में था, जो बाहर और भीतर दोनों के पार भी था। वह साथ एक होकर स्वयं को और सत्य को पाता है। तब वह कहता| | जो बचेगा, उसे हम ब्रह्म कहें-अगर हमने बाहर से यात्रा की हो। है: ब्रह्म मैं हूं, वह सारे ब्रह्म से एक हो जाता है। पूर्ण मैं हूं, तब या उसे हम शून्य कहें, निर्वाण कहें-अगर हमने भीतर से यात्रा वह पूरे पूर्ण से एक हो जाता है। तब चांद-तारे उसे अपने भीतर की हो। घूमते हुए मालूम पड़ते हैं।
जिन लोगों ने परमात्मा को पूर्ण की तरह सोचा है, वे बहिर्यात्रा __ अंतर्मुखी व्यक्ति भीतर डूबते-डूबते इतना भीतर डूब जाता है कि कर रहे हैं। जिन्होंने परमात्मा को शून्य की तरह सोचा है, वे भीतर भी नहीं बचता, शून्य हो जाता है। तब वह कह पाता है, मैं | अंतर्यात्रा कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि योग की साधना करते-करते, हूं ही नहीं। जैसे दीए की लौ बुझ गई और खो गई, ऐसा ही सब | बहिर-साधना करते-करते एक दिन फिर सांख्य की साधना करनी खो गया।
पड़ेगी-कोई जरूरत नहीं है! योग ही पहुंचा देगा। बहिर्मुखी व्यक्ति अंततः पूर्ण को पकड़ पाता है। अंतर्मुखी ___ इसे एक और तरह से समझ लें, तो खयाल में आ जाए। एक व्यक्ति अंततः शून्य को पकड़ पाता है। और शून्य और पूर्ण दोनों आदमी दस की संख्या पर खड़ा है। वह दस की संख्या से अगर एक ही अर्थ रखते हैं। लेकिन बहिर्मखी व्यक्ति बाहर की यात्रा ग्यारह और बारह ऐसा बढता चला जाए, तो भी असीम पर पहुंच कर-करके पहुंचता है; अंतर्मुखी व्यक्ति भीतर की यात्रा कर-करके | जाएगा। एक जगह आएगी, जहां सब संख्याएं खो जाएंगी। अगर पहुंचता है। बहिर्मुखी व्यक्ति अंततः अपने अंतस को बिलकुल वह दस से नीचे उतरे नौ, आठ...पीछे लौटता है, तो एक के बाद काटकर फेंक देता है; भीतर कुछ बचता ही नहीं, बाहर ही बचता | शून्य आ जाएगा, जहां सब संख्याएं खो जाएंगी। आप किसी भी है। अंतर्मुखी व्यक्ति बाहर को भूलते-भूलते इतना भूल जाता है कि | | तरफ यात्रा करें, संख्या खोएगी। और जब संख्या खो जाएगी, तो बाहर कुछ बचता ही नहीं है।
आपने कहां से यात्रा की थी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। जो और बड़े मजे की बात है कि बाहर और भीतर दोनों एक साथ बचेगा-संख्या के बाहर-वह एक ही होने वाला है। बचते हैं। एक नहीं बच सकता दो में से। इसलिए एक खोता है, इसे पाजिटिव और निगेटिव की तरह भी खयाल में ले लेना तो दूसरा तत्काल खो जाता है। अगर आप बाहर ही बाहर बचे और चाहिए। कुछ लोग हैं जिनको विधायक शब्द प्रीतिकर लगते हैं, वे