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________________ m गीता दर्शन भाग-1 AM श्रीमद्भगवद्गीता प्रथमोऽध्यायः तीसरी बात यह भी ध्यान रख लेनी जरूरी है। धृतराष्ट्र कहते हैं, धर्म के उस कुरुक्षेत्र में युद्ध के लिए इकट्ठे हुए...। धृतराष्ट्र उवाच जिस दिन धर्म के क्षेत्र में युद्ध के लिए इकट्ठा होना पड़े, उस दिन धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः। धर्मक्षेत्र धर्मक्षेत्र बचता नहीं है। और जिस दिन धर्म के क्षेत्र में भी मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय ।।१।। लड़ना पड़े, उस दिन धर्म के भी बचने की संभावना समाप्त हो जाती धृतराष्ट्र बोले : हे संजय, धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में इकट्ठे हुए, युद्ध है। रहा होगा वह धर्मक्षेत्र, था नहीं! रहा होगा कभी, पर आज तो की इच्छा वाले, मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया? वहां एक-दूसरे को काटने को आतुर सब लोग इकट्ठे हुए थे। __यह प्रारंभ भी अदभुत है। यह इसलिए भी अदभुत है कि अधर्मक्षेत्रों में क्या होता होगा, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है। er तराष्ट्र आंख से अंधे हैं। लेकिन आंख के न होने से | धर्मक्षेत्र में क्या होता है? वह धृतराष्ट्र संजय से पूछते हैं कि वहां 'वासना नहीं मिट जाती; आंख के न होने से कामना युद्ध के लिए आतुर मेरे पुत्र और उनके विरोधियों ने क्या किया है, ८ नहीं मिट जाती। काश! सूरदास ने धृतराष्ट्र का खयाल | क्या कर रहे हैं, वह मैं जानना चाहता हूं। कर लिया होता, तो आंखें फोड़ने की कोई जरूरत न होती। सूरदास धर्म का क्षेत्र पृथ्वी पर शायद बन नहीं पाया अब तक, क्योंकि ने आंखें फोड़ ली थीं; इसलिए कि न रहेंगी आंखें, न मन में उठेगी धर्मक्षेत्र बनेगा तो युद्ध की संभावना समाप्त हो जानी चाहिए। युद्ध कामना! न उठेगी वासना! पर आंखों से कामना नहीं उठती, कामना की संभावना बनी ही है और धर्मक्षेत्र भी युद्धरत हो जाता है, तो हम उठती है मन से। आंखें फूट भी जाएं, फोड़ भी डाली जाएं, तो भी अधर्म को क्या दोष दें, क्या निंदा करें! सच तो यह है कि अधर्म के वासना का कोई अंत नहीं है। क्षेत्रों में शायद कम यद्ध हए हैं. धर्म के क्षेत्रों में ज्यादा यद हए हैं। गीता की यह अदभुत कथा एक अंधे आदमी की जिज्ञासा से | | और अगर युद्ध और रक्तपात के हिसाब से हम विचार करने चलें, शुरू होती है। असल में इस जगत में सारी कथाएं बंद हो जाएं, | तो धर्मक्षेत्र ज्यादा अधर्मक्षेत्र मालूम पड़ेंगे, बजाय अधर्मक्षेत्रों के। अगर अंधा आदमी न हो। इस जीवन की सारी कथाएं अंधे आदमी | यह व्यंग्य भी समझ लेने जैसा है कि धर्मक्षेत्र पर अब तक युद्ध की जिज्ञासा से शुरू होती हैं। अंधा आदमी भी देखना चाहता है। | होता रहा है। और आज ही होने लगा है, ऐसा भी न समझ लेना; उसे, जो उसे दिखाई नहीं पड़ता; बहरा भी सुनना चाहता है उसे, | | कि आज ही मंदिर और मस्जिद युद्ध के अड्डे बन गए हों। हजारों जो उसे सुनाई नहीं पड़ता। सारी इंद्रियां भी खो जाएं, तो भी मन के | साल पहले, जब हम कहें कि बहुत भले लोग थे पृथ्वी पर, और भीतर छिपी हुई वृत्तियों का कोई विनाश नहीं होता है। कृष्ण जैसा अदभुत आदमी मौजूद था, तब भी कुरुक्षेत्र के धर्मक्षेत्र तो पहली बात तो आपसे यह कहना चाहूंगा कि स्मरण रखें, | पर लोग लड़ने को ही इकट्ठे हुए थे! यह मनुष्य की गहरे में जो युद्ध धृतराष्ट्र अंधे हैं, लेकिन युद्ध के मैदान पर क्या हो रहा है, मीलों दूर की पिपासा है, यह मनुष्य की गहरे में विनाश की जो आकांक्षा है, बैठे उनका मन उसके लिए उत्सुक, जानने को पीड़ित, जानने को | यह मनुष्य के गहरे में जो पशु छिपा है, वह धर्मक्षेत्र में भी छूट नहीं आतुर है। दूसरी बात यह भी स्मरण रखें कि अंधे धृतराष्ट्र के सौ पुत्र | जाता, वह वहां भी युद्ध के लिए तैयारियां कर लेता है। हैं, लेकिन अंधे व्यक्तित्व की संतति आंख वाली नहीं हो सकती है; - इसे स्मरण रख लेना उपयोगी है। और यह भी कि जब धर्म की भला ऊपर से आंखें दिखाई पड़ती हों। अंधे व्यक्ति से जो जन्म पाता | आड़ मिल जाए लड़ने को, तो लड़ना और भी खतरनाक हो जाता है और शायद अंधे व्यक्तियों से ही लोग जन्म पाते हैं तो भला | है। क्योंकि तब जस्टीफाइड, न्याययुक्त भी मालूम होने लगता है। ऊपर की आंख हो, भीतर की आंख पानी कठिन है। यह अंधे धृतराष्ट्र ने जो जिज्ञासा की है, उससे यह धर्मग्रंथ शुरू यह दूसरी बात भी समझ लेनी जरूरी है। धृतराष्ट्र से जन्मे हुए | होता है। सभी धर्मग्रंथ अंधे आदमी की जिज्ञासा से शुरू होते हैं। सौ पुत्र सब तरह से अंधा व्यवहार कर रहे थे। आंखें उनके पास | जिस दिन दुनिया में अंधे आदमी न होंगे, उस दिन धर्मग्रंथ की कोई थीं, लेकिन भीतर की आंख नहीं थी। अंधे से अंधापन ही पैदा हो | | जरूरत भी नहीं रह जाती है। वह अंधा ही जिज्ञासा कर रहा है। सकता है। फिर भी यह पिता, क्या हुआ, यह जानने को उत्सुक है।
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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