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________________ - फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद 4K जैसे कि मैं एक गणित करता हूं, दो और दो पांच जोड़ लेता हूं। ___ आपने अपने को कभी मरते देखा है? किसी को मरते देखा; मैं कितना ही दो और दो पांच जोड़, दो और दो पांच होते नहीं हैं। सोचा, हम भी मरेंगे। नकल कर ली। फिर रोज कोई न कोई मर रहा जब मैं दो और दो पांच जोड़ रहा हूं, तब भी दो और दो चार ही हैं। है—एक मरा, दो मरे, तीन मरे, चार मरे, पांच मरे। फिर पता चला यानी मेरे जोड़ने से कोई दो और दो पांच नहीं हो जाते। एक कमरे | कि सबको मरना ही पड़ता है। पहले जो भी हुए, सब मरे। तो फिर में कुर्सियां रखी हैं दो और दो, और मैं जोड़कर बाहर आता हूं और पक्का होता जाता है अनुमान, गणित तय होता जाता है कि नहीं, कहता हूं कि पांच हैं, तो भी कमरे में पांच कुर्सियां नहीं हो जातीं। मरना ही है। कमरे में कुर्सियां चार ही होती हैं। भूल जोड़ की है। जोड़ की भूल, ___ मृत्यु है, यह अनुभूत सत्य नहीं है। यह एक्सपीरिएंस्ड ट्रथ नहीं अस्तित्व की भूल नहीं बनती। है कि मृत्यु है। यह अनुमानजन्य, इनफरेंशियल है। यह हमने चारों __तो सांख्य का कहना है कि जो गलती है, वह अस्तित्व में नहीं | | तरफ देख लिया कि ऐसा होता है, इसलिए मृत्यु है। है। जो गलती है, वह हमारी समझ में है। वह जोड़ की भूल है। ___ आपने अपना जन्म देखा? यह बड़े मजे की बात है, आप जन्मे ऐसा नहीं है कि जन्म और मृत्यु हैं। ऐसा हमें दिखाई पड़ रहा है कि और आपको अपने जन्म का भी पता नहीं? छोड़ें, मृत्यु अभी आने हैं। हमारे दिखाई पड़ने से हो नहीं जाती। वाली है, भविष्य में है, इसलिए भविष्य का अभी हम कैसे पक्का फिर कल मुझे पता चलता है कि नहीं, दो और दो पांच नहीं होते, | करें! लेकिन जन्म तो कम से कम अतीत में है। आप जन्मे हैं। दो और दो चार होते हैं। मैं फिर लौटकर कमरे में जाता हूं और मैं | | आपको जन्म का भी पता नहीं है कि आप जन्मे हैं! बड़ी मजेदार देखता हूं कि ठीक, दो और दो चार ही हैं। और मैं बाहर आकर बात है। मृत्यु का न पता हो, समझ में आता है। क्योंकि मृत्यु अभी कहता हूं कि जब गणित ठीक आ जाता है किसी को, तो कुर्सियां भविष्य है, पता नहीं होगी कि नहीं होगी। लेकिन जन्म तो हो चुका पांच नहीं रह जाती, चार हो जाती हैं। ऐसा ही-ठीक ऐसा | | है। पर आपको जन्म का भी कोई पता नहीं। और आप ही जन्मे और ही-ऐसा ही समझना है। जो भूल है, वह ज्ञान की भूल है, इरर | | आपको ही अपने जन्म का पता नहीं है! आफ नोइंग। वह भूल एक्झिस्टेंशियल नहीं है, अस्तित्वगत नहीं ___ असल में आपको अपना ही पता नहीं है, जन्म वगैरह का पता है। क्योंकि अस्तित्वगत अगर भूल हो, तो सिर्फ जानने से नहीं मिट | | कैसे हो! इतनी बड़ी घटना जन्म की घट गई, और आपको पता नहीं सकती है। है! असल में आपको जीवन की किसी घटना का-गहरी घटना अगर कुर्सियां पांच ही हो गई हों, तो फिर मैं दो और दो चार कर का कोई भी पता नहीं है। आपको तो जो सिखा दिया गया है, लूं, इससे चार नहीं हो जातीं। कुर्सियां दो और दो चार होने से चार | वही पता है। स्कूल में गणित सिखा दिया गया, मां-बाप ने भाषा तभी हो सकती हैं, जब वे चार रही ही हों उस समय भी, जब मैं सिखा दी, फिर धर्म-मंदिर में धर्म की किताब सिखा दी, फिर किसी पांच गिनता था। वह मेरे गिनने की भूल थी। . ने हिंदू-मुसलमान सिखा दिया, फिर किसी ने कुछ और सिखा - जीवन और मरण आत्मा का होता नहीं, प्रतीत होता है, एपियरेंस दिया-वह सब सीखकर खड़े हो गए हैं। मगर आपको जिंदगी का है, दिखाई पड़ता है, गणित की भूल है। मैंने पीछे आपसे बात कही, | कुछ भी गहरा अनुभव नहीं है, जन्म तक का कोई अनुभव नहीं है! इसे थोड़ा और आगे ले जाना जरूरी है। हम दूसरे को मरते देख लेते तो ध्यान रहे, जब जन्म से गुजरकर आपको जन्म का अनुभव हैं, तो सोचते हैं, मैं भी मरूंगा। यह इमिटेटिव मिसअंडरस्टैंडिंग है। नहीं मिला, तो पक्का समझना कि मृत्यु से भी आप गुजर जाओगे और चूंकि जिंदगी में हम सब इमिटेशन से सीखते हैं, नकल से | | और आपको अनुभव नहीं मिलेगा। क्योंकि वह भी इतनी ही गहरी सीखते हैं, तो मृत्यु भी नकल से सीख लेते हैं। यह नकल है। नकल | घटना है, जितनी जन्म है। वह दरवाजा वही है; जन्म से आप आए चोरी है बिलकुल। जैसे कि बच्चे स्कूल में दूसरे की कापी में से | थे, मृत्यु से आप लौटेंगे-दि सेम डोर। दरवाजा अलग नहीं है; उतारकर उत्तर लिख लेते हैं। उनको हम चोर कहते हैं। हम सब चोर | | दरवाजा वही है। इधर आए थे, उधर जाएंगे। और दरवाजे को हैं, जिंदगी में हमारे अधिकतम अनुभव चोरी के हैं। मृत्यु जैसा बड़ा | | देखने की आपकी आदत नहीं है। आंख बंद करके निकल जाते अनुभव भी चुराया हुआ है। किसी को मरते देखा, कहा कि अब हम | हैं। अभी निकल आए हैं आंख बंद करके, अब फिर आंख बंद भी मरेंगे। करके निकल जाएंगे। 227
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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