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________________ m+ स्वधर्म की खोज AIIM मनोविज्ञान कहता है, चित्त में जितना ज्यादा पाप, अपराध और इसलिए सारी दुनिया में धर्मों ने बहुत-बहुत रूप विकसित किए गिल्ट हो, उतना ही इनडिसीजन पैदा होता है। चित्त में जितना पाप | थे। सब रूप विकृत हो जाते हैं, लेकिन इससे उनका मौलिक सत्य हो, जितना अपराध हो, उतना चित्त डांवाडोल होता है। पापी का | नष्ट नहीं होता। चित्त सर्वाधिक डांवाडोल हो जाता है। अपराधी का चित्त भीतर से हम इस देश में कहते थे कि गंगा में स्नान कर आओ, पाप धुल भूकंप से भर जाता है। | जाएंगे। गंगा में कोई पाप नहीं धुल सकते। गंगा के पानी में पाप बड़े मजे की बात है कि कृष्ण से पूछा है अर्जुन ने, कोई निश्चित | धोने की कोई कीमिया, कोई केमिस्ट्री नहीं है। लेकिन एक बात कहें। कष्ण जो उत्तर देते हैं. वह बहत और है। वे निश्चित बात साइकोलाजिकल सत्य है कि अगर कोई आदमी परे भरोसे और का उत्तर नहीं दे रहे हैं। वे पहले अर्जुन को आश्वस्त करते हैं कि निष्ठा से गंगा में नहाकर अनुभव करे कि मैं निष्पाप हुआ, तो वह भीतर निश्चित हो पाए। वे उससे कहते हैं, निष्पाप अर्जुन! लौटकर पाप करना मुश्किल हो जाएगा। डिसकंटिन्युटी हो गई। यह भी समझ लेने जैसा है कि पाप कम सताता है; पाप किया वह जो कल तक पापी था, गंगा में नहाकर बाहर निकला और अब मैंने, यह ज्यादा सताता है। इसलिए जीसस ने रिपेंटेंस और वह दूसरा आदमी है, आइडेंटिटी टूटी। संभावना है कि उसको प्रायश्चित्त की एक बड़ी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया निकाली और कहा | निष्पाप होने का यह जो क्षणभर को भी बोध हुआ है...। कि अपने अपराध को और पाप को जो स्वीकार कर ले, वह पाप | गंगा कुछ भी नहीं करती। लेकिन अगर पूरे मुल्क के कलेक्टिव से मुक्त हो जाता है। सिर्फ स्वीकार करने से! | माइंड में, अगर पूरे मुल्क के अचेतन मन में यह भाव हो कि गंगा ___ पाप के साथ एक मजा है कि पाप को हम छिपाना चाहते हैं। में नहाने से पाप धुलता है, तो गंगा में नहाने वाला निष्पाप होने के अगर इसे और ठीक से समझें, तो कहना होगा कि जिसे हम | | भाव को उपलब्ध होता है। और निष्पाप होने का भाव निश्चय में छिपाना चाहते हैं, वह पाप है। इसलिए जिसे हम प्रकट कर दें, वह ले जाता है, पापी होने का भाव अनिश्चय में ले जाता है। पाप नहीं रह जाता। जिसे हम घोषित कर दें, वह पाप नहीं रह जाता। इसलिए अर्जुन तो पूछता है कि कृष्ण, कुछ ऐसी बात कहो, जो जीसस ने एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया ईसाइयत को दी और वह निश्चित हो और जिससे मेरा डांवाडोलपन मिट जाए। लेकिन कृष्ण यह कि अपने पाप को स्वीकार कर लो और तुम पाप से मुक्त हो कहां से शुरू करते हैं, वह देखने लायक है। कृष्ण कहते हैं, हे जाओगे। ऐसी और भी प्रक्रियाएं सारी पृथ्वी पर पैदा हुईं, जिनमें | निष्पाप अर्जुन! यही किया गया कि व्यक्ति को आश्वासन दिलाया गया कि अब कृष्ण जैसे व्यक्ति के मुंह से जब अर्जुन ने सुना होगा, हे निष्पाप तुम निष्पाप हो। और अगर व्यक्ति को यह भरोसा आ जाए कि वह | अर्जुन! तो गंगा में नहा गया होगा। सारी गंगा उसके ऊपर गिर पड़ी निष्पाप है, तो उसके भविष्य में पाप करने की क्षमता क्षीण होती है। | होगी, जब उसने कृष्ण की आंखों में झांका होगा और देखा होगा कि यह भी बहुत मजे की बात है कि हम वही करते हैं, जो हमारी कृष्ण कहते हैं, हे निष्पाप अर्जुन! और कृष्ण जैसे व्यक्ति जब किसी अपने बाबत इमेज होती है। अगर एक आदमी को पक्का ही पता को ऐसी बात कहते हैं, तो सिर्फ शब्द से नहीं कहते; खयाल रखें! है कि वह चोर है, तो उसे चोरी से बचाना बहुत मुश्किल है। वह उनका सब कुछ कहता है। उनका रो-रोआं, उनकी आंख, उनकी चोरी करेगा ही। वह अपनी प्रतिमा को ही जानता है कि वह चोर श्वास, उनका होना-उनका सब कुछ कहता है, हे निष्पाप अर्जुन! की प्रतिमा है, और तो कुछ उससे हो भी नहीं सकता। इसलिए | । जब कृष्ण की उस गंगा में अर्जुन को निष्पाप होने का क्षणभर अगर हम एक आदमी को चारों तरफ से सुझाव देते रहें कि तुम चोर | | को बोध हुआ होगा। तो जो निश्चय कृष्ण के कोई वचन नहीं दे हो, तो हम अचोर को भी चोर बना सकते हैं। | सकते, वह अर्जुन को निष्पाप होने से मिला होगा। इससे उलटा भी संभव है, घटित होता है। अगर हम चोर को भी | । इसलिए कृष्ण पहले उसे मनोवैज्ञानिक रूप से उसके भीतर के सुझाव दें चारों तरफ से कि तुम चोर नहीं हो, तो हम उसे चोर होने | आंदोलन से मुक्त करते हैं। कहते हैं, हे निष्पाप अर्जुन! और मजे में कठिनाई पैदा करते हैं। अगर दस भले आदमी एक बुरे आदमी | | की बात यह है कि यह कहकर, फिर वे वही कहते हैं कि दो निष्ठाएं को भला मान लें, तो उस बुरे आदमी को भले होने की सुविधा और हैं। वह कह चुके हैं। वह दूसरे अध्याय में कह चुके हैं। लेकिन तब मार्ग मिल जाता है। तक अर्जुन को निष्पाप उन्होंने नहीं कहा था। अर्जुन डांवाडोल था। 31]
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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