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________________ गीता दर्शन भाग- 14 दिखाई पड़ने वाला सारा जाल - यह स्वप्न है। तू इसकी फिक्र मत और लड़ कृष्ण का लड़ने के लिए यह आह्वान तथाकथित धार्मिक लोगों को, सो काल्ड रिलीजस लोगों को, सदा ही कष्ट का कारण रहा है; समझ के बाहर रहा है। क्योंकि एक तरफ समझाने वाले लोग हैं, जो कहते हैं, चींटी पर पैर पड़ जाए तो बचाना, अहिंसा है। पानी छानकर पीना । दूसरी तरफ यह कृष्ण है, जो कह रहा है कि लड़, क्योंकि यहां न कोई मरता, न कोई मारा जाता। यह सब देह स्वप्न है। अर्जुन साधारणतः ठीक कहता मालूम पड़ता है। गांधी ने चाहा होता कि अर्जुन की बात कृष्ण मान लेते, अहिंसावादियों ने चाहा होता कि कृष्ण की बात न चलती, अर्जुन की चल जाती। लेकिन कृष्ण बड़ी अजीब बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, जो स्वप्न है, उसके लिए तू दुखी हो रहा है ! जो नहीं है, उसके लिए तू पीड़ित और परेशान हो रहा है! साधारण नीति के बहुत पार चली गई बात। इसलिए जब पहली बार गीता के अनुवाद पश्चिम में पहुंचे, तो पश्चिम के नीतिविदों की छातियां कंप गईं। भरोसा न हुआ कि कृष्ण और ऐसी बात कहेंगे। जिन्होंने सिर्फ पुरानी बाइबिल के टेन कमांडमेंट्स पढ़े थे धर्म के नाम पर - जिन्होंने पढ़ा था चोरी मत ,जिन्होंने पढ़ा था असत मत बोल, जिन्होंने पढ़ा था किसी को दुख मत पहुंचा — उनके प्राण अगर कंप गए हों...। बड़ा शॉकिंग था कि कृष्ण कहते हैं कि यह सब स्वप्न है; तू लड़! कर तो पश्चिम के नीतिविदों को लगा कि गीता जैसी किताब नैतिक नहीं है। या तो अनैतिक है या अतिनैतिक है। या तो इम्मारल है या एमारल है। कम से कम मारल तो नहीं है। यह क्या बात है ? और ऐसा पश्चिम में ही लगा हो, ऐसा नहीं, जैन विचारकों ने कृष्ण को नर्क में डाल दिया। जैन चिंतन को अनुभव हुआ कि यह आदमी क्या कह रहा है! मारने की खुली छूट ! अगर अर्जुन का वश चलता तो महाभारत शायद न होता। कृष्ण ने ही करवा दिया। तो अहिंसा की धारा इस मुल्क में भी थी। उसने कृष्ण को नर्क में डालने की जरूरत महसूस की। इस आदमी को नर्क में डाल ही देना चाहिए। यह बड़ा मुद्दा है और बड़े विचार का है। इसमें ध्यान रखना जरूरी है कि नीति धर्म नहीं है, नीति बहुत कामचलाऊ व्यवस्था है। नीति बिलकुल सामाजिक घटना है। नीति स्वप्न के बीच व्यवस्था 'है। स्वप्न में भी रास्तों पर चलना हो तो नियम बनाने पड़ेंगे। स्वप्न में भी जीना हो तो व्यवस्थापन, डिसिप्लिन, शिष्ट- अनुशासन बनाना पड़ेगा। नीति धर्म नहीं है, नीति बिलकुल सामाजिक व्यवस्था है। इसलिए नीति रोज बदल सकती है; समाज बदलेगा और नीति बदलेगी। कल जो ठीक था, वह आज गलत हो जाएगा। आज ठीक है, वह कल गलत हो जाएगा। नीति भी असत का हिस्सा है। इसका यह मतलब नहीं है कि धर्म अनीति है । जब नीति तक असत का हिस्सा है, तो अनीति तो असत का हिस्सा होगी ही । धर्म नीति और अनीति को पार करता है। असल में धर्म संसार को पार | करता है। तो इसलिए कृष्ण की बात जिस तल से कही जा रही है, | उस तल से बहुत मुश्किल से समझी जा सकी है। | जैनों ने नर्क में डाल दिया, वह एक उपाय था, उनसे 'छुटकारा पाने का। गांधी ने पूरी गीता को मेटाफर मान लिया। मान लिया कि यह हुई नहीं है घटना कभी, क्योंकि कृष्ण कहां युद्ध करवा सकते हैं! यह किसी असली युद्ध की बात नहीं है, यह तो शुभ-अशुभ | के बीच जो युद्ध चलता है, उसकी प्रतीक- कथा है, सिम्बालिक है। यह दूसरी तरकीब थी — ज्यादा बली । लेकिन मतलब वही छुटकारा पाने का है। मतलब यह कि यह घटना कभी...। कृष्ण युद्ध कैसे करवा सकते हैं! कृष्ण कैसे कह सकते हैं कि युद्ध करो ! नहीं, कृष्ण तो यह कह ही नहीं सकते। इसलिए अब एक दूसरा उपाय है - होशियारी से कृष्ण से बच जाने का — और वह यह है कि कहो कि मेटाफर है, सिंबल है, एक कहानी है, प्रतीक-कथा है। यह घटना कभी घटी नहीं, ऐसा कोई युद्ध कहीं हुआ नहीं कि जिसमें युद्ध करवाया गया हो। ये सब तो प्रतीकपुरुष हैं - यह अर्जुन और यह दुर्योधन और ये सब - ये व्यक्ति नहीं हैं, ये ऐतिहासिक तथ्य नहीं हैं। यह तो सिर्फ एक पैरेबल है, एक प्रतीक - कथा है, जिसमें शुभ और अशुभ की लड़ाई हो रही है। और अशुभ के खिलाफ लड़ने के लिए कृष्ण कह रहे हैं। अब यह कृष्ण को एकदम विकृत करना है। कृष्ण अशुभ के खिलाफ लड़ने को नहीं कह रहे हैं। अगर कृष्ण को ठीक समझें, तो वे कह रहे हैं कि शुभ और अशुभ एक ही स्वप्न के हिस्से हैं, हिंसा और अहिंसा एक ही स्वप्न के हिस्से हैं। कृष्ण यह नहीं कह | रहे हैं कि हिंसा ठीक है, कृष्ण इतना ही कह रहे हैं कि हिंसा और अहिंसा अच्छे और बुरे आदमी के स्वप्न हैं । स्वप्न ही हैं। और पूरे स्वप्न को स्वप्न की भांति जो जानता है, वह सत्य को उपलब्ध होता है । नीति का अतिक्रमण करती है यह बात । अनैतिक नहीं है। अनीति का भी अतिक्रमण करती है यह बात । 116
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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