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m गीता दर्शन भाग-1 AM
श्रीमद्भगवद्गीता
समझ लेने के लिए जरूरी हैं। अथ तृतीयोऽध्यायः
दुनिया में, सारे जगत में मनुष्य जाति ने जितना चिंतन किया है,
उसे दो धाराओं में बांटा जा सकता है। सच तो यह है कि बस दो अर्जुन उवाच
ही प्रकार के चिंतन पृथ्वी पर हुए हैं, शेष सारे चिंतन कहीं न कहीं ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन । | उन दो श्रृंखलाओं से बंध जाते हैं। एक चिंतन का नाम है सांख्य; तत्कि कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ।।१।। | और दूसरे चिंतन का नाम है योग। बस, दो ही सिस्टम्स हैं सारे अर्जुन ने कहा, हे जनार्दन, यदि कर्मों की अपेक्षा ज्ञान | जगत में। जिन्होंने सांख्य का और योग का नाम भी नहीं सुना आपको श्रेष्ठ मान्य है. तो फिर हे केशव, मुझे भयंकर कर्म है—चाहे अरस्तू, चाहे सुकरात, चाहे अब्राहिम, चाहे इजेकिअल, में क्यों लगाते हैं?
चाहे लाओत्से, चाहे कन्फ्युसियस-जिन्हें सांख्य और योग के नाम का भी कोई पता नहीं है, वे भी इन दो में से किसी एक में ही
खड़े होंगे। बस, दो ही तरह की निष्ठाएं हो सकती हैं। वन का सत्य कर्म से उपलब्ध है या ज्ञान से? यदि कर्म सांख्य की निष्ठा है कि सत्य सिर्फ ज्ञान से ही जाना जा सकता 1 से उपलब्ध है, तो उसका अर्थ होगा कि वह हमें आज | है, कुछ और करना जरूरी नहीं है। कृत्य की, कर्म की कोई भी
नहीं मिला हुआ है, श्रम करने से कल मिल सकता है। | आवश्यकता नहीं है। प्रयास की, प्रयत्न की, श्रम की, साधना की यदि कर्म से उपलब्ध होगा, तो उसका अर्थ है, वह हमारा स्वभाव कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि जो भी खोया है हमने, वह खोया नहीं है, अर्जित वस्तु है। यदि कर्म से उपलब्ध होगा, तो उसका अर्थ | नहीं, केवल स्मृति खो गई है। याद पर्याप्त है, रिमेंबरिंग पर्याप्त है, उसे हम विश्राम में खो देंगे। जिसे हम कर्म से पाते हैं, उसे है-करने का कोई भी सवाल नहीं है। निष्कर्म में खोया जा सकता है।
__ योग की मान्यता है, बिना किए कुछ भी नहीं हो सकेगा। साधना निश्चित ही जीवन का सत्य ऐसी कोई वस्त नहीं है. जो कर्म के बिना नहीं पहंचा जा सकता है। क्योंकि योग का कहना है : करने से मिलेगा। जीवन का सत्य मिला ही हुआ है; उसे हमने कभी अज्ञान को भी काटना पड़ेगा: उसके काटने में भी श्रम करना होगा। खोया नहीं है; उसे हम चाहें तो भी खो नहीं सकते हैं। हमारे प्राणों अज्ञान कुछ ऐसा नहीं है जैसा अंधेरा है कि दीया जलाया और का प्राण वही है।
अज्ञान चला गया। अंधेरा कुछ ऐसा है, जैसे एक आदमी जंजीरों फिर हमने खोया क्या है? हमने सिर्फ उसकी स्मृति खोई है, से बंधा पड़ा है। माना कि स्वतंत्रता उसका स्वभाव है, लेकिन उसकी सुरति खोई है। हम केवल, जो है हमारे पास मौजूद, उसे | जंजीरें काटे बिना स्वतंत्रता के स्मरण मात्र से वह मक्त नहीं हो जान नहीं पा रहे हैं। हमारी आंख बंद है; रोशनी मौजूद है। हमारे सकता है। द्वार बंद हैं; सूरज मौजूद है। सूरज को पाने नहीं जाना; द्वार खोले, __ सांख्य मानता है : अज्ञान अंधेरे की भांति है, जंजीरों की भांति सूरज मिला ही हुआ है।
| नहीं। इसलिए दीया जलाया कि अंधेरा गया। ज्ञान हुआ कि अज्ञान कृष्ण ने अर्जुन को इस सूत्र के पहले सांख्ययोग की बात कही गया। योग कहता है: अज्ञान का भी अस्तित्व है, उसे भी काटना है। कृष्ण ने कहा, जो पाने जैसा है, वह मिला ही हुआ है। जो जानने | पड़ेगा। जैसा है, वह निकट से भी निकट है। उसे हमने कभी खोया नहीं। दो तरह की निष्ठाएं हैं जगत में सांख्य की और योग की। है। वह हमारा स्वरूप है। तो अर्जुन पूछ रहा है, यदि जो जानने | ___ कृष्ण ने दूसरे अध्याय में अर्जुन को सांख्य की निष्ठा के संबंध योग्य है, जो पाने योग्य है, वह मिला ही हुआ है और यदि जीवन | | में बताया है। उन्होंने कहा है, ज्ञान पर्याप्त है, ज्ञान परम है, की मुक्ति और जीवन का आनंद मात्र ज्ञान पर निर्भर है, तो मुझ | अल्टिमेट है। गरीब को इस महाकर्म में क्यों धक्का दे रहे हैं!
साकेटीज ने ठीक ऐसी ही बात यूनान में कही है। साक्रेटीज को कृष्ण ने सांख्य की जो दृष्टि समझाई है, अर्जुन उस सांख्य की हम पश्चिम में सांख्य का व्यवस्थापक कह सकते हैं। साक्रेटीज ने दृष्टि पर नया प्रश्न खड़ा कर रहा है। दो शब्द सांख्य की दृष्टि को कहा है : ज्ञान ही चरित्र है। कुछ और करना नहीं है, जान लेना
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