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________________ am गीता दर्शन भाग-1 AM दुःखेष्वनुद्धिग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । | कांटे में आटा लगा लेता है। आटे को लटका देता है पानी में। कोई वीतरागभयक्रोधः स्थितधीमुनिरुच्यते ।। ५६ ।। | मछली कांटे को पकड़ने को न आएगी। कोई मछली क्यों कांटे को तथा दुखों की प्राप्ति में उद्वेगरहित है मन जिसका और सुखों | | पकड़ेगी? लेकिन आटे को तो कोई भी मछली पकड़ना चाहती है। की प्राप्ति में दूर हो गई है स्पृहा जिसकी, तथा नष्ट हो गए | मछली सदा आटा ही पकड़ती है, लेकिन आटे के पकड़े जाने में है-राग, भय और क्रोध जिसके, ऐसा मुनि स्थिर-बुद्धि | मछली कांटे में पकड़ी जाती है। आटा धोखा सिद्ध होता है, कहा जाता है। आवरण सिद्ध होता है; कांटा भीतर का सत्य सिद्ध होता है। सुख आटे से ज्यादा नहीं है। हर सुख के आटे में दुख का कांटा | है। और सुख भी तभी तक मालूम पड़ता है, जब तक आटा दर है 1 माधिस्थ कौन है? स्थितधी कौन है? कौन है जिसकी | | और मछली के मुंह में नहीं है तभी तक! मुंह में आते ही तो कांटा स प्रज्ञा थिर हुई? कौन है जो चंचल चित्त के पार हुआ? | | मालूम पड़ना शुरू हो जाता है। अर्जुन ने उसके लक्षण पूछे हैं। कृष्ण इस सूत्र में कह | | तो सुख सिर्फ दिखाई पड़ता है, मिलता सदा दुख है। और जिसने रहे हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं होता...। | सुख चाहा हो, उसे दुख मिल जाए, वह उद्विग्न न हो! तो फिर दुख आने पर कौन उद्विग्न नहीं होता है? दुख आने पर सिर्फ | | उद्विग्न और कौन होगा? जिसने सुख मांगा हो और देख आ जाए, वही उद्विग्न नहीं होता, जिसने सुख की कोई स्पृहा न की हो, जिसने जिसने जीवन मांगा हो और मृत्यु आ जाए, जिसने सिंहासन मांगे सुख चाहा न हो। जिसने सुख चाहा हो, वह दुख आने पर उद्विग्न हों और सूली आ जाए-वह उद्विग्न नहीं होगा? उद्विग्न होगा ही। होगा ही। जो चाहा हो और न मिले, तो उद्विग्नता होगी ही। सुख | अपेक्षा के प्रतिकूल उद्विग्नता निर्मित होती है। की चाह जहां है, वहां दुख की पीड़ा भी होगी ही। जिसे सुख के | और भी एक बात समझ लेने जैसी है कि असल में जो सुख मांग फूल चाहिए, उसे दुख के कांटों के लिए तैयार होना ही पड़ता है। | रहा है, वह भी उद्विग्नता मांग रहा है। शायद इसका कभी खयाल इसलिए पहली बात कहते हैं, दुख आने पर जो उद्विग्न नहीं | न किया हो। खयाल तो हम जीवन में किसी चीज का नहीं करते। होता। और दूसरी बात कहते हैं, सुख की जिसे स्पहा नहीं है, सुख आंख बंद करके जीते हैं। अन्यथा कृष्ण को कहने की जरूरत न रह की जिसे आकांक्षा नहीं है। जाए। हमें ही दिखाई पड़ सकता है। ये एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। सुख की आकांक्षा है, तो दुख सुख भी एक उद्विग्नता है। सुख भी एक उत्तेजना है। हां, की उद्विग्नता होगी। सुख की आकांक्षा नहीं है, तो दुख असमर्थ है | प्रीतिकर उत्तेजना है। है तो आंदोलन ही, मन थिर नहीं होता सुख में फिर उद्विग्न करने में। भी, कंपता है। इसलिए कभी अगर बड़ा सुख मिल जाए, तो दुख दुख को तो कोई भी नहीं चाहता है, दुख आता है। सुख को सभी से भी बदतर सिद्ध हो सकता है। कभी आटा भी बहुत आ जाए चाहते हैं। इसलिए दुख को आने का एक ही रास्ता है, सुख की मछली के मुंह में, तो कांटे तक नहीं पहुंचती; आटा ही मार डालता आड़ में; और तो कोई रास्ता भी नहीं है। दुख को तो कोई बुलाता | है, कांटे तक पहुंचने की जरूरत नहीं रह जाती। नहीं, निमंत्रण नहीं देता। दुख को तो कोई कहता नहीं कि आओ। एक आदमी को लाटरी मिल जाती है और हृदय की गति दुख का अतिथि द्वार पर आए, तो कोई भी द्वार बंद कर लेता है। एकदम से बंद हो जाती है। लाख रुपया! हृदय चले भी तो कैसे दुख का तो कोई स्वागत नहीं करता। फिर भी दुख आता तो है। तो चले! इतने जोर से चल नहीं सकता, जितने जोर से लाख रुपये दुख कहां से आता है? के सुख में चलना चाहिए। इतने जोर से नहीं चल सकता है, दुख, सुख की आड़ में आता है; वही है मार्ग। अगर बहुत ठीक | इसलिए बंद हो जाता है। बड़ी उत्तेजना की जरूरत थी। हृदय नहीं से समझें, तो दुख सुख की ही छाया है। और भी गहरे में समझें, | | | चाहिए था, लोहे का फेफड़ा चाहिए था, तो लाख रुपये की तो जो ऊपर से सुख दिखाई पड़ता है, वह भीतर से दुख सिद्ध होता उत्तेजना में भी धड़कता रहता। लाख रुपये अचानक मिल जाएं, है। कहें कि सुख केवल दिखावा है, दुख स्थिति है। .. तो सुख भी भारी पड़ जाता है। जैसे एक आदमी मछली मार रहा है नदी के किनारे बैठकर, तो | खयाल में ले लेना जरूरी है कि सुख भी उत्तेजना है; उसकी भी 1248
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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