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________________ im+ विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है +4 मात्राएं हैं। कुछ मात्राओं को हम सह पाते हैं। आमतौर से सुख की तक टूट सकती है। तार टूट सकते हैं। मात्रा किसी को मारती नहीं, क्योंकि मात्रा से ज्यादा सुख आमतौर | । सुख भी उत्तेजना है—प्रीतिकर। अपने आप में तो सिर्फ उत्तेजना से उतरता नहीं। है। हमारे मनोभाव में प्रीतिकर है, क्योंकि हमने उसे चाहा है। यह बहुत मजे की बात है कि मात्रा से ज्यादा दुख आदमी को इसलिए एक और बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है कि सब सुख नहीं मार पाता, लेकिन मात्रा से ज्यादा सुख मार डालता है। दुख | कनवर्टिबल हैं, दुख बन सकते हैं। और सब दुख सुख बन सकते को सहना बहुत आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। सुख हैं। कुल सवाल इतना है कि चाह है। चाह का फर्क हो जाना चाहिए। मिलता नहीं है, इसलिए हमें पता नहीं है। दख को सहना बहत एक आदमी पहली दफा शराब पीता है. तो प्रीतिकर नहीं होता आसान है, सुख को सहना बहुत मुश्किल है। क्यों? क्योंकि दुख | स्वाद। स्वाद तिक्त ही होता है, अप्रीतिकर ही होता है। इसलिए के बाहर सुख की सदा आशा बनी रहती है। उस उत्तेजना के बाहर | टेस्ट डेवलप करना होता है। शराब पीने वाले को स्वाद विकसित निकलने की आशा बनी रहती है। उसे सहा जा सकता है। करना पड़ता है। फिर-फिर पीता है—मित्रों की शान में, लोगों की सुख के बाहर कोई आशा नहीं रह जाती; मिला कि आप ठप्प | तारीफ में, कि मैं कोई कमजोर तो नहीं हूं-पीता है, अभ्यास हो हुए, बंद हुए। मिलता नहीं है, यह बात दूसरी है। आप जो चाहते | | जाता है। फिर वह तिक्त स्वाद भी प्रीतिकर लगने लगता है। हैं, वह तत्काल मिल जाए, तो आपके हृदय की गति वहीं बंद हो | | सिगरेट कोई पहली दफा पीता है, तो खांसी ही आती है, जाएगी। क्योंकि सुख में ओपनिंग नहीं है, दुख में ओपनिंग है। दुख तकलीफ ही होती है। फिर सिगरेट के साथ जुड़ी है अकड़, सिगरेट में द्वार है, आगे सुख की आशा है, जिससे जी सकते हैं। सुख अगर | के साथ जुड़ा है अहंकार, सिगरेट के साथ शान के प्रतीक जुड़े हैं। पूरा मिल जाए, तो आगे फिर कोई आशा नहीं है, जीने का उपाय | उस शान के लिए आदमी उस दुख को झेलता है और अभ्यासी हो नहीं रह जाता। सुख भी एक गहरी उत्तेजना है। जाता है। फिर वह सिगरेट का गंदा स्वाद-धुएं में कोई और - मैंने सुना है, एक आदमी को लाटरी मिल गई है। उसकी पत्नी | अच्छा स्वाद हो भी नहीं सकता–प्रीतिकर लगने लगता है, सुख बहुत चिंतित और परेशान है, घबड़ा गई है। उस आदमी के हाथ में | | हो जाता है। दुख का भी अभ्यास सुख बना सकता है। और सुख कभी सौ रुपये नहीं आए. इकटे पांच लाख रुपये। पास में चर्च है। के अभ्यास से भी दख निकल आता है। वह पादरी के पास गई है और उसने प्रार्थना की, पांच लाख की आए हैं आप मेरे पास, मैंने गले आपको लगा लिया; बहुत लाटरी मिल गई है, पति दफ्तर से लौटते होंगे। क्लर्क हैं, सौ रुपये प्रीतिकर लगा है क्षणभर को। लेकिन मिनिट होने लगा, अब आप से ज्यादा कभी देखे नहीं हैं हाथ में, पांच लाख! उन्हें किसी तरह घबड़ा रहे हैं। दो मिनिट होने लगे, अब आप छूटना चाहते हैं। तीन इस सुख से बचाओ। कहीं कुछ हानि न हो जाए! मिनिट हो गए, अब आप कहते हैं, छोड़िए भी। चार मिनिट हो पादरी ने कहा, घबड़ाओ मत, एकदम से सुख पड़े तो खतरा हो गए, अब आप घबड़ाते हैं कि कहीं मैं पागल तो नहीं हूं! पांच सकता है, इंस्टालमेंट में पड़े तो खतरा नहीं हो सकता। हम आते | मिनिट हो गए, अब आप पुलिस वाले को चिल्लाते हैं! हैं; हम खंड-खंड सुख देने का इंतजाम करते हैं। यह हुआ क्या? पहले क्षण में कह रहे थे, हृदय से मिलकर बड़ा मान था; आ गया, बैठ गया। पति घर लौटा। पादरी आनंद मिला है। पांच मिनिट में आनंद खो गया! अगर मिला था, ने सोचा, पांच लाख इकट्ठा कहना ठीक नहीं, पचास हजार से शुरू | तो पांच मिनिट में हजार गुना हो जाना चाहिए था। जब एक सेकेंड करो। तो उसने पति को कहा कि सुना तुमने, पचास हजार लाटरी | में इतना मिला, तो दूसरे में और ज्यादा, तीसरे में और ज्यादा। नहीं, में मिले हैं। फिर आंखों की तरफ देखा कि इतना पचा जाए तो फिर वह पहले सेकेंड में भी मिला नहीं था, सिर्फ सोचा गया था। दूसरे और पचास हजार की बात करूं! लेकिन उस आदमी ने कहा, सच! | सेकेंड में समझ बढ़ी, तीसरे में समझ और बढ़ी—पाया कि कुछ अगर पचास हजार मुझे मिले हैं, यह सच है, तो पच्चीस हजार चर्च | भी नहीं है। जिन हाथों को हम हाथों में लेने को तरसते हैं, थोड़ी देर को दान देता है। पादरी का हार्ट-फेल हो गया। पच्चीस हजार। पांच | में सिवाय पसीने के उनसे कछ भी नहीं निकलता है। पैसे कोई चर्च को देता नहीं था। | सब सुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर दुख हो जाती हैं; सब सुख का आघात अगर आकस्मिक हो, तीव्र हो, तो जीवनधारा दुख की उत्तेजनाएं परिचित होने पर सुख बन सकती हैं। सुख और पादरी बदिमान 1249
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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