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Om मोह-मुक्ति, आत्म-तृप्ति और प्रज्ञा की थिरता -
हूं, तो मैं कहां संतुष्ट हो सकूँगा? जब मैं भीतर ही बीमार हूं, तो मैं | होशियार है कि इसके पहले कि एक जगह से तंबू उखड़ें, वह दूसरी किसी के भी साथ होकर कैसे स्वस्थ हो सकूँगा? जब दुख मेरे जगह खूटियां गाड़ चुका होता है। भीतर ही है, तब किसी और का सख मझे कैसे भर पाएगा?
और हम सब इसको समझ लेते हैं। अगर पत्नी देखती है कि हां, थोड़ी देर के लिए धोखा हो सकता है। लोग मरघट ले जाते पति थोड़ी कम उत्सुकता ले रहा है, तो वह किसी बहुत गहरे हैं किसी को, कंधे पर रखकर उसकी अर्थी को, तो रास्ते में कंधा इंसटिंक्टिव आधार पर समझ जाती है कि खूटियां किसी और स्त्री बदल लेते हैं। एक कंधा दुखने लगता है, तो दूसरे कंधे पर अर्थी पर गड़नी शुरू हो गई होंगी। तत्काल! तत्काल कोई उसे गहरे में कर लेते हैं। लेकिन अर्थी का वजन कम होता है? नहीं, दुखा हुआ बता जाता है, कहीं खूटियां और गड़नी शुरू हो गई हैं। और सौ में कंधा थोड़ी राहत पा लेता है। नए कंधे पर थोड़ी देर भ्रम होता है कि नन्यानबे मौके पर बात सही होती है। सही इसलिए होती है कि सौ ठीक है। फिर दसरा कंधा दखने लगता है। सिर्फ वजन के टांसफर | में निन्यानबे मौके पर आदमी स्थितप्रज्ञ नहीं हो जाता। और मन से कुछ अंतर पड़ता है? नहीं कोई अंतर पड़ता। अपने पर वजन | बिना टियां गाड़े जी नहीं सकता। है, तो कंधे बदलने से कुछ न होगा। और भीतर दुख है, तो साथी ___ हां, एक मौके पर गलत होती है। कभी किसी बुद्ध के मौके पर बदलने से कुछ न होगा। और भीतर दुख है, तो जगह बदलने से | | गलत हो जाती है। यशोधरा ने भी सोची होगी पहली बात तो यही कुछ न होगा।
कि कुछ गड़बड़ है। जरूर कोई दूसरी स्त्री बीच में आ गई, अन्यथा .. दूसरे में संतोष खोजना ही प्रज्ञा की अस्थिरता है, स्वयं में संतोष | | भाग कैसे सकते थे! पा लेना ही प्रज्ञा की स्थिरता है। लेकिन स्वयं में संतोष वही पा इसलिए बुद्ध जब बारह साल बाद घर लौटे, तो यशोधरा बहुत सकता है, जो-दूसरे में संतोष नहीं मिलता है-इस सत्य को | | नाराज थी, बड़ी क्रुद्ध थी। क्योंकि वह यह सोच ही नहीं सकती कि अनुभव करता है। जब तक यह भ्रम बना रहता है कि मिल मन ने कहीं खंटियां ही न गाड़ी हों, खंटियां ही उखाड़ दी हों सब जाएगा-इसमें नहीं मिलता तो दूसरे में मिल जाएगा, दूसरे में नहीं | तरफ से। और फिर भी बड़े मजे की बात है कि एक स्त्री को इसमें मिलता तो तीसरे में मिल जाएगा–जब तक यह भ्रम बना रहेगा, | | ही ज्यादा सुख मिलेगा कि कोई किसी दूसरी स्त्री पर खूटियां गाड़ तब तक जन्मों-जन्मों तक प्रज्ञा अस्थिर रहेगी। जब तक यह | ले। इसमें ही ज्यादा पीड़ा होगी कि अब खूटियां गाड़ी ही नहीं हैं। इलूजन, जब तक यह भ्रम पीछा करेगा कि कोई बात नहीं, इस स्त्री | क्योंकि यह बिलकुल समझ के बाहर मामला हो जाता है। में सुख नहीं मिला, दूसरी में मिल सकता है; इस पुरुष में सुख नहीं कृष्ण से अर्जुन ने जो बात पूछी है, उसके लिए पहला उत्तर मिला. दसरे में मिल सकता है. इस मकान में सख नहीं मिला. बहत ही गहरा है. मौलिक है. आधारभत है। जब तक चित्त सोचता दूसरे में मिल सकता है; इस कार में सुख नहीं मिला, दूसरी कार है कि कहीं और सुख मिल सकता है, तब तक चित्त स्वयं से में मिल सकता है जब तक यह भ्रम बना रहेगा कि बदलाहट में असंतुष्ट है। जब तक चित्त स्वयं से असंतुष्ट है, तब तक दूसरे की मिल सकता है, तब तक प्रज्ञा डोलती ही रहेगी, कंपित होती ही आकांक्षा, दूसरे की अभीप्सा उसकी चेतना को कंपित करती रहेगी, रहेगी। यह विषयों की आकांक्षा, यह भ्रामक दूर के ढोल का| | दूसरा उसे खींचता रहेगा। और उसके दीए की लौ दूसरे की तरफ सुहावनापन, यह चित्त को कंपाता ही रहेगा।
दौड़ती रहेगी, तो थिर नहीं हो सकती। जैसे ही-दूसरे में सुख नहीं लेकिन आदमी बहुत अदभुत है। अगर उसका सबसे अदभुत | है-इसका बोध स्पष्ट हो जाता है, जैसे ही दूसरे पर खूटियां कोई रहस्य है, तो वह यही है कि वह अपने को धोखा देने में अनंत गाड़ना मन बंद कर देता है, वैसे ही सहज चेतना अपने में थिर हो रूप से समर्थ है। इनफिनिट उसकी सामर्थ्य है धोखा देने की। एक जाती है। स्थिरधी की घटना घट जाती है। चीज से धोखा टूट जाए, टूट ही नहीं पाता कि उसके पहले वह | बायरन ने शादी की। मुश्किल से शादी की। कोई साठ स्त्रियों अपने धोखे का दूसरा इंतजाम कर लेता है।
से उसके संबंध थे। हमें लगेगा, कैसा पुरुष था। लेकिन अगर हमें बर्नार्ड शा ने कहीं कहा है, कि कैसा मजेदार है मन! एक जगह | लगता है, तो हम धोखा दे रहे हैं। असल में ऐसा पुरुष खोजना भ्रम के तंबू उखड़ नहीं पाते कि मन तत्काल दूसरी जगह खूटियां | | कठिन है जो साठ स्त्रियों से भी तृप्त हो जाए। यह दूसरी बात है कि गाड़कर इंतजाम शुरू कर देता है। सच तो यह है कि मन इतना समाज का भय है, हिम्मत नहीं जुटती, व्यवस्था है, कानून है, और
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