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m+ गीता दर्शन भाग-1 AM
यह मृत आदमी नहीं है, बांसुरी की धुन इसे बांधती नहीं। यह मृत कोई छोड़ दे, तो अच्छा नहीं लगता, क्योंकि अकेले में हम अपने आदमी नहीं है, यह जीवित आदमी है।
| ही साथ रह जाते हैं। हमें कोई दूसरा चाहिए, कंपनी चाहिए, साथ __ और जीवित आदमी का मतलब ही है, रिस्पांसिव। जगत जो भी चाहिए। तभी हमें अच्छा लगता है, जब कोई और हो। स्थिति ला देगा, उसमें उत्तर देगा और उत्तर रेडीमेड नहीं होंगे। | और बड़े मजे की बात है कि दो आदमियों को साथ होकर अच्छा स्थितप्रज्ञ के उत्तर कभी भी रेडीमेड नहीं हैं, तैयार नहीं हैं। उन पर | लगता है और इन दोनों आदमियों को ही अकेले में बुरा लगता है। सैमसन की सील नहीं होती, वे रेडीमेड कपड़े नहीं हैं। बने-बनाए | जो अपने साथ ही आनंदित नहीं है, वह दूसरे को आनंद दे पाएगा? नहीं हैं कि बस कोई भी पहन ले। वह प्रतिपल, प्रतिपल जीवन को | और जो अपने को भी इस योग्य नहीं मानता कि खुद को आनंद दे दिए गए उत्तर से, प्रतिपल जीवन के प्रति हुई संवेदना से, सब कुछ | पाए, वह दूसरे को आनंद कैसे दे पा सकता है? करीब-करीब निकलता है। इसलिए एक अनुशासन नहीं है ऊपर, लेकिन भीतर | हमारी हालत ऐसी है कि जैसे भिखारी रास्ते पर मिल जाएं और एक गहरा अनुशासन है।
एक-दूसरे के सामने भिक्षा-पात्र फैला दें। दोनों भिखारी! और एक बात और। जिनके जीवन में ऊपर अनुशासन होता है, | मैंने सुना है, एक गांव में दो ज्योतिषी रहते थे। सुबह दोनों उनके जीवन में ऊपर अनुशासन इसलिए होता है कि उन्हें इनर | निकलते थे, तो एक-दूसरे को अपना हाथ दिखा देते थे कि आज डिसिप्लिन का भरोसा नहीं है। उनके भीतर कोई डिसिप्लिन नहीं | | कैसा धंधा चलेगा! है। जिन्हें भीतर के अनुशासन का कोई भरोसा नहीं है, वे ऊपर से | | हम सब स्वयं से बिलकुल राजी नहीं हैं। एक क्षण अकेलापन अनुशासन बांधकर चलते हैं। लेकिन जिनके भीतर के अनुशासन | भारी हो जाता है। जितना हम अपने से ऊब जाते हैं, उतना हम का जिन्हें भरोसा है, वे ऊपर से बिलकुल स्वतंत्र होकर चलते हैं। | किसी से नहीं ऊबते। रेडियो खोलो, अखबार उठाओ, मित्र के पास कोई डर ही नहीं है। कोई डर ही नहीं है। वे तैयार होकर नहीं जीते; | जाओ, होटल में जाओ, सिनेमा में जाओ, नाच देखो, मंदिर में वे जीते हैं, क्योंकि वे तैयार हैं। जो भी स्थिति आएगी, उसमें उत्तर | | जाओ-कहीं न कहीं जाओ, अपने साथ मत रहो। अपने साथ उनसे आएगा। उस उत्तर के लिए पहले से तैयार होने की कोई भी बड़ा...। जरूरत नहीं है।
कृष्ण पहला सूत्र देते हैं, स्वयं से संतुष्ट, स्वयं से तृप्त। . स्वभावतः, जो अपने से तृप्त नहीं है, उसकी चेतना सदा दूसरे की
तरफ बहती रहेगी, उसकी चेतना सदा दूसरे की तरफ कंपती रहेगी। श्री भगवानुवाच
असल में जहां हमारा संतोष है, वहीं हमारी चेतना की ज्योति ढल प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्यार्थ मनोगतान् । जाती है। मिलता है वहां या नहीं, यह दूसरी बात है। लेकिन जहां आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रजस्तदोच्यते ।। ५५ ।। हमें संतोष दिखाई पड़ता है, हमारे प्राणों की धारा उसी तरफ बहने उसके उपरांत श्री कृष्ण भगवान बोले : हे अर्जुन, जिस काल लगती है। में यह पुरुष मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देता | तो हम चौबीस घंटे बहते रहते हैं यहां-वहां। एक जगह को है, उस काल में आत्मा से ही आत्मा में संतुष्ट हुआ, | छोड़कर अपने में होने को छोड़कर-हमारा होना सब तरफ स्थिर प्रज्ञा वाला कहा जाता है।
डांवाडोल होता है। फिर जिसके पास भी बैठ जाते हैं, थोड़ी देर में वह भी उबा देता है। मित्र से भी ऊब जाते हैं, प्रेमी से भी ऊब जाते
| है, क्लब से भी ऊब जाते हैं, खेल से भी ऊब जाते हैं, ताश से भी मतरूप से संतुष्ट-टु बी कंटेंट विद वनसेल्फ-इसे ऊब जाते हैं। तो फिर विषय बदलने पड़ते हैं। फिर दौड़ शुरू होती रप पहला स्थितप्रज्ञ का लक्षण कृष्ण कहते हैं। हम कभी | | है-जल्दी बदलो-नए सेंसेशन की, नई संवेदना की। सब पुराना
भी स्वयं से संतुष्ट नहीं हैं। अगर हमारा कोई भी पड़ता जाता है-नया लाओ, नया लाओ, नया लाओ। उसमें हम लक्षण कहा जा सके, तो वह है, स्वयं से असंतुष्ट। हमारे जीवन दौड़ते चले जाते हैं। की पूरी धारा ही स्वयं से असंतुष्ट होने की धारा है। अकेले में हमें , लेकिन कभी यह नहीं देखते कि जब मैं अपने से ही असंतुष्ट
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