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________________ पूर्व की जीवन-कलाः आश्रम प्रणाली - जीवन का शिखर था वह आदमी। उसके रोएं-रोएं में जीवन | | तब तक गुरु-शिष्य का संबंध निर्मित नहीं हो सकता। गुरु-शिष्य अपनी छाप छोड़ गया। उसकी श्वास-श्वास में जीवन अपना | का संबंध सिर्फ इनफार्मेटिव नहीं है, एक्झिस्टेंशियल है। और सिर्फ अनुभव छोड़ गया। उसकी धड़कन-धड़कन में जीवन सारी संपत्ति इस पृथ्वी के इस हिस्से पर ही हमने एक्झिस्टेंशियल, अस्तित्वगत छोड़ गया। उसके चेहरे की झुरी-झुर्रा में जीवन की प्रौढ़ता और | भेद पैदा किया था, कि गुरु होना चाहिए जीवन का अस्त और जीवन का सब कुछ छिपा है। जब छोटे बच्चे जंगल आते और इस | विद्यार्थी होना चाहिए जीवन का उदय। इन दोनों के बीच पचास, पचहत्तर साल, अस्सी साल, सौ साल के बूढ़े के पास बैठते, तो | साठ, सत्तर साल का फासला; साठ साल, सत्तर साल के अनुभव स्वाभाविक था कि उनके मन में आदर और पूज्य का भाव उठता। | का फासला। और सिर्फ अनुभव ज्ञान नहीं देता, अनुभव वासनाओं न इस आदमी में कोई वासना होती, निर्वासना हो जाता। यह पूज्य से भी मुक्ति दिला देता है। और अनुभव, वे सब क्षुद्रताएं जो कल मालूम पड़ता, यह भगवान मालूम पड़ता। | बड़ी महत्वपूर्ण थीं, उनका अंत बन जाता है। और अनुभव, कल तो अगर ये बच्चे कह सके कि गुरु ब्रह्मा, तो आज के गुरु को तक के वे सब विकार-क्रोध, काम, लोभ-उन सबसे छुटकारा नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह बिलकुल परमात्मा जैसा ही | | बन जाता है। और जब ऐसे व्यक्ति के पास बच्चे इकट्ठे होते, तो लगता, जिसमें वासना विलीन हो गई, जिसकी कोई इच्छा न रही, वे जीवन का दान लेकर वापस लौटते थे, चिर-ऋणी होकर वापस जिसको चीजों पर कोई मोह न रहा; घटनाएं कुछ भी घट जाएं, जो लौटते थे। यह चौथा आश्रम संन्यास का आश्रम था। शास्त्र-सम्मत उनको एक-सा ही लेने लगा; जिसका चित्त अनासक्त हुआ; जो | ऐसी जीवन के क्रम की व्यवस्था थी। सब छोड़े तो, सब बचे तो, न बचे तो, सब बराबर हो गया, ऐसे | ___ कृष्ण कहते हैं अर्जुन से, जो इस भांति शास्त्र-सम्मत जीवन की जीवन के शिखर पर बैठे हुए वृद्ध के पास अगर बच्चे अनुभव | कर्म-व्यवस्था में प्रवेश करता है, अनुकूल जीवन के बहता है, वह करते कि वह परमात्मा है, तो आश्चर्य तो नहीं है। इंद्रियों के सुखों को तो उपलब्ध हो ही जाता है, अंततः आत्मा के लेकिन आज का गुरु सोचे कि उसे कोई परमात्मा माने, तो वह आनंद को भी उपलब्ध हो जाता है। और इस जीवन के क्रम में पागल है। उसे परमात्मा मानने का कारण ही नहीं रह गया है, सारी | | प्रवाहित होकर अंत में जरूर वह ऐसी जगह पहुंच जाता है, जब बुनियाद गिर गई है। और हम कहते ही उसे थे कि गुरु होने के योग्य | करने और न-करने में कोई फर्क नहीं रहता अर्जुन। ही वही हआ. जो सारे जीवन को जानकर आ गया, अन्यथा गुरु | | क्यों, अर्जुन से कृष्ण यह क्यों कह रहे हैं? अर्जुन से वे यह कह नहीं हो सकता था। आज जो गुरु है, वह सिर्फ इनफार्मेटिव है; रहे हैं कि अभी, अभी तू उस जगह नहीं है, जहां से तू संन्यस्त हो उसके पास कुछ सूचनाएं हैं, जो विद्यार्थी के पास नहीं हैं। लेकिन | सके। अभी तू उस जगह नहीं है, जहां से संन्यास फलित हो सके। जहां तक जीवन का, एक्झिस्टेंस का, अस्तित्व का संबंध है, उसमें अभी तू उस जगह नहीं है जीवन के क्रम में, जहां से तू मुक्त हो और विद्यार्थी में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। सके कर्म से। अभी तुझे करने और न-करने में समानता नहीं हो ___ अक्सर ऐसा हो जाता है कि युनिवर्सिटी में लड़के भी उसी | सकती। अभी तू अगर न-करने को चुनेगा, तो भी चुनेगा, वह तेरी लड़की को प्रेम करने लगते हैं और शिक्षक भी। कापिटीटिव हो च्वाइस होगी। लेकिन एक ऐसी घड़ी भी आती है जीवन के प्रवाह जाता है। एक ही लड़की के लिए स्पर्धा हो सकती है कक्षा में। तब | में, जब करना और न-करना बराबर हो जाता है; चुनाव नहीं होता, इस बच्चे के मन में इस गुरु के प्रति कौन-सा आदर हो सकता है? च्वाइसलेस हो जाता है, चुनावरहित हो जाता है।। यह गुरु भी उसी पान की दुकान पर पान खाता है, यह लड़का भी । तो कृष्ण उससे यह कह रहे हैं...पहले उन्होंने जोर दिया कि तू उसी पान की दुकान पर पान खाता है। यह गुरु भी उसी फिल्म को क्षत्रिय है। वह इस मुल्क के द्वारा खोजे गए विज्ञान का एक हिस्सा देखता है, उसी की बगल में बैठकर उसका विद्यार्थी भी देखता है! था-वर्ण। और अब वे एक दूसरे विज्ञान के हिस्से पर जोर दे रहे और जब फिल्म में नंगा चित्र आता है, तो गुरु की भी रीढ़ सीधी हो | हैं—आश्रम। वर्णाश्रम, मनुष्य के जीवन के संबंध में इस मुल्क का जाती है और लड़के की भी रीढ़ सीधी हो जाती है। इन दोनों के बीच बड़ा से बड़ा कांट्रिब्यूशन है, बड़ा से बड़ा दान जो हम जगत को दे कोई जीवनगत भेद नहीं है। | सके हैं, वह वर्ण और आश्रम की धारणा है। लेकिन हमने सोचा यह था कि जब तक जीवनगत भेद न हो, अब वे दूसरी बात कह रहे हैं; अब वे यह कह रहे हैं कि अगर 375
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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