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________________ - अर्जुन का पलायन-अहंकार की ही दूसरी अति र में विनम्रता डिफेंसिव ईगोइज्म है, वह सुरक्षा करता हुआ अहंकार है। आक्रामक अहंकार मुश्किल में पड़ सकता है। विनम्र अहंकार पहले से ही सुरक्षित है, वह इंश्योर्ड है। इसलिए जब कोई कहता है, मैं तो कुछ भी नहीं हूं, आपके चरणों की धूल हूं, तब जरा उसकी आंखों में देखना। तब उसकी आंखें कछ और ही कहती हई मालम पड़ेंगी। उसके शब्द कुछ और कहते मालूम पड़ेंगे। कृष्ण ने अर्जुन की रग पर हाथ रखा है, लेकिन अर्जुन नहीं समझ पा रहा है। वह दूसरे कोने से फिर बात शुरू करता है। वह कहता है, द्रोण को, जो मेरे गुरु हैं; भीष्म को, जो मेरे परम आदरणीय हैं, पूज्य हैं-उन पर मैं कैसे आक्रमण करूंगा! यहां ध्यान में रखने जैसी बात है, यहां भीष्म और द्रोण गौण हैं। अर्जन कह रहा है. मैं कैसे आक्रमण करूंगा? इतना बरा मैं नहीं कि द्रोण पर और बाण खींचूं! कि भीष्म की और छाती छेदूं! नहीं, यह मुझसे न हो सकेगा। यहां वह कह तो यही रहा है कि वे पूज्य हैं, यह मैं कैसे करूंगा? लेकिन गहरे में खोजें और देखें तो पता चलेगा, वह यह कह रहा है कि यह मेरी जो इमेज है, मेरी जो प्रतिमा है, मेरी ही आंखों में जो मैं हूं, उसके लिए यह असंभव है। इससे तो बेहतर है मधुसूदन कि मैं ही मर जाऊं। इससे तो अच्छा है, प्रतिमा बचे, शरीर खो जाए; अहंकार बचे, मैं खो जाऊं। वह जो इमेज है मेरी, वह जो सेल्फ इमेज है उसकी...। हर आदमी की अपनी-अपनी एक प्रतिमा है। जब आप किसी पर क्रोध कर लेते हैं और बाद में पछताते हैं और क्षमा मांगते हैं, तो इस भ्रांति में मत पड़ना कि आप क्षमा मांग रहे हैं और पछता रहे हैं। असल में आप अपने सेल्फ इमेज को वापस निर्मित कर रहे हैं। आप जब किसी पर क्रोध करते हैं, तो आपने निरंतर अपने को अच्छा आदमी समझा है, वह प्रतिमा आप अपने ही हाथ से खंडित कर लेते हैं। क्रोध के बाद पता चलता है कि वह अच्छा आदमी, जो मैं अपने को अब तक समझता था, क्या मैं नहीं हं! अहंकार कहता है; नहीं, आदमी तो मैं अच्छा ही हूं। यह क्रोध जो हो गया है, यह बीच में आ गई भल-चक है। इंस्पाइट आफ मी. मेरे बावजूद हो गया है। यह कोई मैंने नहीं किया है, हो गया, परिस्थितिजन्य है। पछताते हैं, क्षमा मांग लेते हैं। अगर सच में ही क्रोध के लिए पछताए हैं, तो दुबारा क्रोध फिर जीवन में नहीं आना चाहिए। नहीं, लेकिन कल फिर क्रोध आता है। नहीं, क्रोध से कोई अड़चन न थी। अड़चन हुई थी कोई और | बात से। यह कभी सोचा ही नहीं था कि मैं और क्रोध कर सकता हूं! तो जब पछता लेते हैं, तब आपकी अच्छी प्रतिमा, आपका अहंकार फिर सिंहासन पर विराजमान हो जाता है। वह कहता है, देखो माफी मांग ली, क्षमा मांग ली। विनम्र आदमी हूं। समय ने, परिस्थिति ने, अवसर ने, मूड नहीं था, भूखा था, दफ्तर से नाराज लौटा था, असफल था, कुछ काम में गड़बड़ हो गई थी-परिस्थितिजन्य था। मेरे भीतर से नहीं आया था क्रोध। | मैंने तो क्षमा मांग ली है। जैसे ही होश आया, जैसे ही मैं लौटा, | मैंने क्षमा मांग ली है। आप अपनी प्रतिमा को फिर सजा-संवारकर, फिर गहने-आभूषण पहनाकर सिंहासन पर विराजमान कर दिए। | क्रोध के पहले भी यह प्रतिमा सिंहासन पर बैठी थी, क्रोध में नीचे | लुढ़क गई थी; फिर बिठा दिया। अब आप फिर पूर्ववत पुरानी जगह आ गए. कल फिर क्रोध करेंगे। पर्ववत अपनी ज | गए। क्रोध के पहले भी यहीं थे, क्रोध के बाद भी यहीं आ गए। जो | पश्चात्ताप है, वह इस प्रतिमा की पुनर्स्थापना है। __ लेकिन ऐसा लगता है, क्षमा मांगता आदमी बड़ा विनम्र है। सब | दिखावे सच नहीं हैं। सच बहुत गहरे हैं और अक्सर उलटे हैं। वह |आदमी आपसे क्षमा नहीं मांग रहा है। वह आदमी अपने ही सामने | निंदित हो गया है। उस निंदा को झाड़ रहा है, पोंछ रहा है, बुहार रहा है। वह फिर साफ-सुथरा, स्नान करके फिर खड़ा हो रहा है। ___ यह जो अर्जुन कह रहा है कि पूज्य हैं उस तरफ, उन्हें मैं कैसे | मारूं? एम्फेसिस यहां उनके पूज्य होने पर नहीं है। एम्फेसिस यहां अर्जन के मैं पर है कि मैं कैसे मारूं? नहीं-नहीं, यह अपने मैं की | प्रतिमा खंडित करने से, कि लोक-लोकांतर में लोग कहें कि अपने ही गुरु पर आक्रमण किया, कि अपने ही पूज्यों को मारा, इससे तो बेहतर है मधुसूदन कि मैं ही मर जाऊं। लेकिन लोग कहें कि मर. | गया अर्जुन, लेकिन पूज्यों पर हाथ न उठाया। मर गया, मिट गया, लेकिन गुरु पर हाथ न उठाया। । उसके मैं को पकड़ लेने की जरूरत है। अभी उसकी पकड़ में | नहीं है। किसी की पकड़ में नहीं होता है। जिसका मैं अपनी ही पकड़ में आ जाए, वह मैं के बाहर हो जाता है। हम अपने मैं को | बचा-बचाकर जीते हैं। वह दूसरी-दुसरी बातें करता जाएगा। वह सब्स्टीटयूट खोजता चला जाएगा। कभी कहेगा यह, कभी कहेगा वह। सिर्फ उस बिंदु को छोड़ता जाएगा, जो है। कृष्ण ने छूना चाहा | था, वह उस बात को छोड़ गया है। अनार्य-आर्य की बात वह नहीं उठाता। कातरता की बात वह नहीं उठाता। लोक में यश. परलोक
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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