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________________ Mmm गीता दर्शन भाग-1 - नारियल हैं; शरीर पर चोट लगी नहीं कि आत्मा तक चोट पहुंच | इसलिए कृष्ण कहते हैं, उसे ज्ञान उपलब्ध नहीं हो पाता। जाती है। जुड़ा है सब। जैसे आप अपने दरवाजे पर खड़े हैं और रास्ते पर चलते लोगों वासना कच्चा ईंधन है। गीली लकड़ी है। क्या मतलब है मेरा? | | को देख रहे हैं, तो फिर घर के लोगों को न देखे पाएंगे। सच तो वासना को देखने के दो-तीन प्रकार हैं। एक तो वासना की मान्यता यह है कि अगर रास्ते पर चलते लोगों को देखने में बहुत लीन हो है कि जो मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है। वासना का आधार है | | गए, तो अपने को भूल ही जाएंगे। असल में दूसरे को देखने में कि जो मुझे चाहिए, वह मेरे पास नहीं है; जो भी चाहिए, वह नहीं | ध्यान दूसरे पर चला जाता है, स्वयं से च्युत हो जाता है। है। वासना का स्वरूप सदा यही है कि जो भी चाहिए, वह मेरे पास | वासना पर लगा हुआ ध्यान आत्मा से च्युत हो जाता है। आत्मा नहीं है। ऐसा नहीं कि कल वह चीज मिल जाएगी तो वासना मर | | भीतर खड़ी है, मौजूद है, सदा तैयार है। आओ कभी भी, द्वार खुले जाएगी, सिर्फ वासना उस चीज से सरककर किसी दूसरी चीज पर | | हैं। लेकिन वासना की यात्रा पर निकला आदमी जन्मों-जन्मों लग जाएगी। दस हजार रुपए नहीं हैं, तो वासना कहती है कि दस भटकता है और वहां नहीं आता है। वह खोजता ही चला जाता है। हजार रुपए चाहिए। दस हजार रुपए होते हैं, तो वासना कहती है वह खोजता ही चला जाता है। और जहां तक पहंचता है, वासना कि दस लाख चाहिए। दस लाख होते हैं, तो वासना कहती है कि आगे के स्वप्न बना लेती है। क्षितिज की तरह है वासना। हॅराइजन दस करोड़ चाहिए। दिखाई पड़ता है आकाश का। लगता है, थोड़ी ही दूर, दस मील एण्ड कार्नेगी अमेरिका का एक अरबपति मरा। जब मरा, तो वह |दूर आकाश जमीन को छू रहा है। कहीं भी छूता नहीं। मन कहता दस अरब रुपए छोड़कर मरा। मरने के दो दिन पहले उसका जीवन | है, बस पास ही है; जरा दौडूं और पहुंच जाऊं। पहुंचे.आप, दौड़ें लिखने वाले एक व्यक्ति ने उससे पूछा कि आप तो तृप्त होंगे! | आप। पहुंच भी जाएंगे दस मील, लेकिन पाएंगे कि आकाश अब आपसे बड़ा अरबपति पृथ्वी पर कोई दूसरा नहीं है; आपने तो | | भी छूता है, लेकिन अब दस मील आगे छूता है। और दस मील जिंदगी में जो पाना चाहा था, वह पा लिया है। एण्ड कार्नेगी ने गुस्से चलें। पहुंच जाएंगे दस मील, फिर भी पाएंगे, आकाश फिर भी से उसको कहा, चुप रहो, बकवास बंद करो। जो मैंने पाना चाहा | छूता है, आगे दस मील छूता है। आकाश सदा ही आगे दस मील था, वह मैंने कहां पाया है? मेरे इरादे सौ अरब रुपए छोड़ने के थे। | छूता है। कहीं छूता नहीं; सिर्फ छूता हुआ प्रतीत होता है। दौड़ते रहें; लेकिन क्या आप सोचते हैं, सौ अरब रुपए एण्डू कार्नेगी के | | पूरी पृथ्वी का चक्कर लगा लें, आकाश कहीं छूता हुआ नहीं पास होते, तो बात हल हो जाती? क्योंकि जिसकी दस अरब से | | मिलेगा। लेकिन सदा मालूम पड़ेगा कि बस, जरा और आगे, और हल न हुई, उसकी सौ अरब से भी हल न होती। हां, सौ अरब होते, | छुआ, और छुआ। बस, यह तो छू रहा है! दौड़ाता सदा रहेगा, तो इरादे और आगे बढ़ जाते, हजार अरब पर हो जाते, लाख अरब कभी छूता हुआ मिलेगा नहीं। पर हो जाते। वासना आकाश छूती हुई क्षितिज की रेखा जैसी है। सदा लगती वासना, जो नहीं है, उसकी मांग है। इसलिए एक अर्थ में समझें, | | है, बस अब पूरी हुई—एक वर्ष और, दो वर्ष और, दस वर्ष और, तो वासना सदा ही रिक्त है, सदा खाली है। सदा रिक्त, सदा | यह कारखाना और, यह मकान और, यह दुकान और–बस पूरा खाली, सदा एंप्टी, कभी भरती नहीं। भर नहीं सकती। उसका | हुआ जाता है, क्षितिज की रेखा आई जाती है, आकाश छू लेगा। स्वभाव यही है कि जो नहीं है, वह। और कुछ तो नहीं होगा ही। | पहुंच जाते हैं वहां, पाते हैं कि रिक्त, खाली हाथ वैसे ही खड़े हैं, कुछ तो नहीं होगा ही। वह, जो नहीं है, वासना वहीं लगी रहती है। | जैसे दस साल पहले थे, पचास साल पहले थे और आकाश अभी और चूंकि वासना जो नहीं है, वहां लगी रहती है, इसलिए आत्मा, | | भी थोड़े आगे छू रहा है। वासना अभी भी थोड़े आगे कह रही है, जो है, वह हमें प्रकट नहीं हो पाती। हमारा सारा चित्त उस पर | थोड़े और चल आओ, तो तृप्ति हो जाएगी। अटका रहता है, जो नहीं है। हम उसको कैसे देख पाएं, जो है। | इसलिए आदमी बढ़ता चला जाता है। और तब एक चीज से आत्मा अभी है, यहीं है; और वासना कल है, कहीं है। वासना सदा वंचित रह जाता है, जो उसे मिली हुई थी, जो उसके पास ही थी, भविष्य में है, आत्मा सदा वर्तमान में है। इसलिए जिस आदमी का | | जो कि परमात्मा की उसे भेंट थी, गिफ्ट थी, जो कि परमात्मा ने उसे मन वासना में भटक रहा है, वह आत्मा तक नहीं पहुंच पाता। | दी थी, उस चीज से भर वंचित रह जाता है। और जो वासनाएं उसे 456
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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