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________________ - वासना की धूल, चेतना का दर्पण - दे नहीं सकतीं, कभी नहीं दे सकतीं, उन्हीं की दौड़ में वह दौड़ता | उसके साथी, जो उसे घुमा रहे थे, वे उसके पीछे भागे। उसे कहा चला जाता है। इस दौड़ के धुएं में खो जाता है ज्ञान; इस दौड़ में | कि रुको भाई! वह नहीं रुका। वह तो स्टेशन पार कर गया। वह छिप जाता है वह, जो है। इस दौड़ में भूल जाता है वह, जो सदा | तो अपनी गली में पहुंच गया। वह तो अपने घर के सामने पहुंच से साथ है; और स्मरण आता है उसका, जो कभी साथ नहीं हो गया। उसने कहा, वह रहा मेरे पिता का घर। वह रही मेरी तख्ती, सकता है। जो घर के सामने लगी है। विस्मरण टूट गया; स्मरण लौट आया। वासना ही अज्ञान है. डिजायरिंग इज इग्नोरेंस। ठीक से समझें. परमात्मा पुनःस्मरण है, रिमेंबरिंग है। वह हमारे भीतर बैठा है। तो अज्ञान कुछ और नहीं है। वासना में दौड़ा हुआ चित्त आत्मा को | | हम एक दुर्घटनाग्रस्त स्थिति में हो गए हैं। हमारा एक्सिडेंट, हमारी उपलब्ध नहीं हो पाता है। यह विस्मरण बन जाता है। वासना का दुर्घटना यह है कि जो नहीं है, उसने हमें आकर्षित कर लिया है। स्मरण आत्मा का विस्मरण है। इच्छा के पीछे ध्यान का जाना, स्वयं | | इसका कारण है कि जो होता है, उसका आकर्षण नहीं होता है; जो से ध्यान का चूक जाना है। और ध्यान हमेशा वन डायमेंशनल है। नहीं है, उसमें आकर्षण होता है। जो पास है, उसे हम भूल जाते हैं; ध्यान एक आयामी है। अगर आप इच्छा के पीछे चले गए, तो वह | | जो दूर है, उसे हम याद करते हैं। कभी आपने खयाल किया, मित्र पीछे नहीं लौट सकता। कोई उपाय नहीं है। हां, इच्छा जाए, विदा पास हो, तो याद नहीं आती; मित्र दूर हो, तो याद आती है। प्रियजन हो, धुआं न हो, तो वह अपने पर लौट आए। इसलिए कृष्ण इस | | बगल में बैठा हो, तो भूल जाता है; अखबार पढ़ते रहते हैं। और सूत्र में कहते हैं कि ज्ञान कोई खोता नहीं, लेकिन ज्ञान विस्मरण हो | प्रियजन दूर चला जाए, तो अखबार क्या गीता भी नहीं पढ़ी जाती; जाता है। फारगेटफुलनेस, खोना नहीं है, सिर्फ विस्मृति है। बंद करके रख देते हैं; उसकी याद आती है। दूर है कोई चीज, तो मैंने सुना है, पिछले महायुद्ध में एक आदमी चोट खाकर गिर. | याद आती है; नहीं है पास, तो याद आती है। पास है, बिलकुल पड़ा और भूल गया नाम, पिता का नाम, घर का पता। कठिनाई न | पास है, तो याद भूल जाती है। पड़ती, कठिनाई न पड़ती, अगर उसका नंबर भी रह गया होता। और परमात्मा से ज्यादा पास हमारे और कोई भी नहीं है। लेकिन युद्ध के मैदान में कहीं उसका नंबर भी गिर गया और वह मोहम्मद ने कहा है, गले की नस-जो कट जाए, तो जीवन चला बेहोश उठाकर लाया गया। नंबर होता, तो पता चल जाता। नंबर | | जाए-उससे भी पास है परमात्मा। श्वास–जो बंद हो जाए, तो भी नहीं था और उस आदमी को होश आया, उसे पता भी नहीं था प्राण निकल जाएं-मोहम्मद ने कहा है, उससे भी पास है कि मैं कौन हूं! उसे रिटायर्ड भी कर दिया गया, लेकिन उसे कहां | परमात्मा। श्वास से भी जो पास है, उसे अगर हम भूल गए, तो पहुंचाया जाए! उसे अपना कोई पता ही नहीं। कोई आश्चर्य नहीं, स्वाभाविक है। फिर किसी मनोवैज्ञानिक ने सुझाव दिया कि उसे इंग्लैंड के अज्ञान बिलकुल स्वाभाविक है, लेकिन तोड़ा जा सकता है, गांव-गांव में घुमाया जाए, ट्रेन से ले जाया जाए। हो सकता है, | | अनिवार्य नहीं है। स्वाभाविक है, अनिवार्य नहीं है। प्राकृतिक है, किसी स्टेशन को देखकर उसे याद आ जाए कि यह मेरा गांव है। | मंगलदायी नहीं है। भूल गए, यह ठीक, लेकिन इस भूल से सारा क्योंकि गांव खोया तो नहीं है, सिर्फ विस्मरण हो गया है। गांव तो | जीवन दुख और पीड़ा और नर्क से भर जाता है। हमारी सारी पीड़ा अपनी जगह होगा और यह आदमी अपनी जगह है। और गांव | एक ही है बुनियाद में, गहरे में, केंद्र पर कि हम उसे भूल गए हैं, अपनी जगह है और यह आदमी अपनी जगह है। सब अपनी जगह जो हमारे भीतर बैठा है। है, लेकिन बीच की स्मृति का धागा टूट गया है, शायद जुड़ जाए। | कृष्ण कहते हैं, जैसे धुएं से आग छिपी है, ऐसे ही तुम भी छिपे उसे गांव-गांव ले जाया गया। बड़े-बड़े नगरों में ले जाया गया। हो अपनी ही वासना से। लेकिन वह बस खड़ा हो जाता, उसे कुछ याद न आता। फिर एक ___ कभी आपने खयाल किया कि यह धुआं बड़ा कीमती शब्द है। जगह तो ट्रेन रुकनी नहीं थी, किसी कारण से छोटी स्टेशन पर रुकी | | कुछ और शब्द भी प्रयोग किया जा सकता था, लेकिन धुआं थी, उस आदमी ने खिड़की से झांककर देखा। फिर वह | | कितना हवाई है, ठोस नहीं है जरा भी। जरा भी ठोस नहीं है, हाथ मनोवैज्ञानिकों को बताने के लिए नहीं रुका, जो उसके साथ थे, | | हिलाएं, तो चोट भी नहीं लगती धुएं को। तलवार चलाएं, तो धुआं दरवाजा खोलकर भागा। उसने कहा, मेरा गांव! मनोवैज्ञानिक, | | कट भी नहीं सकता। धक्के देकर हटाएं, तो आप ही हट जाएंगे, 1457
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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