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________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 AM धुआं वहीं का वहीं रह जाएगा। कितना ना-कुछ, जस्ट लाइक जम जाती है आदमी की चेतना पर।। नथिंग। धुएं का इसलिए उपयोग किया है कि बिलकुल ना-कुछ है, | चेतना को दर्पण कहना बहुत सार्थक है। चेतना है ही दर्पण। सब्सटेंशियल जरा भी नहीं, तत्व कुछ भी नहीं है; धुआं-धुआं है। | | लेकिन हमारे पास चेतना दर्पण की तरह काम नहीं करती। धूल वासना भी ऐसी ही धुआं-धुआं है। तत्व कुछ भी नहीं है, सिर्फ | बहुत है। कुछ नहीं दिखाई पड़ता। अपनी ही शक्ल नहीं दिखाई धुआं-धुआं है। हाथ से हटाएं, हटती नहीं; तलवार से काटें, कटती पड़ती अपनी ही चेतना में, तो और क्या दिखाई पड़ेगा! कुछ नहीं नहीं; फिर भी है। और उसे छिपा लेती है, जो बहुत वास्तविक है। दिखाई पड़ता। अंधे की तरह टटोलकर चलना पड़ता है। वह दर्पण, अब आग से ज्यादा वास्तविक क्या होगा! आग किसी को भी जला | जिसमें सत्य दिखाई पड़ सकता है, जिसमें परमात्मा दिखाई पड़ दे और धुएं को नहीं जला पाती! आग किसी को भी राख कर दे, | | सकता है, जिसमें स्वयं की झलक का प्रतिबिंब बन जाता, कुछ नहीं और धुएं को राख नहीं कर पाती। अगर धुआं होता कुछ, तो आग दिखाई पड़ता, सिर्फ धूल ही धूल है। और हम उस धूल को बढ़ाए उसको जला देती। वह ना-कुछ है, इसलिए जला भी नहीं पाती। | चले जाते हैं। धीरे-धीरे हम बिलकुल अंधे हो जाते हैं, एक और धुआं उसे घेर लेता है। ऐसे ही मनुष्य के भीतर के ज्ञान को स्प्रिचुअल ब्लाइंडनेस। उसकी वासना घेर लेती है। वासना अगर कुछ होती, तो ज्ञान काट एक अंधापन तो आंख का है। जरूरी नहीं कि आंख का अंधा भी देता, लेकिन बिलकुल धुआं-धुआं है। आदमी भीतर से अंधा हो। जरूरी नहीं कि आंख का ठीक आदमी कभी आपने अगर खयाल किया होगा अपने चित्त का, जब वह | भीतर से अंधा न हो। एक और अंधापन भी है, जो भीतर के दर्पण वासना से भरता है, तो आपको फौरन पता लगेगा कि जैसे | पर धूल के जम जाने से पैदा हो जाता है। हम तो दर्पण की तरह धुआं-धुआं चारों ओर घिर गया। कभी कामवासना से जब मन भर | व्यवहार ही नहीं करते। एक तो हमें पता ही नहीं चलता कि हमारे जाता है, तो ऐसा ही लगता है, जैसे सुबह, सर्दी की सुबह आप | भीतर कोई दर्पण है, जिसमें सत्य का प्रतिफलन हो सके! दर्पण का बाहर निकले हों और चारों ओर धुआं-धुआं है। कुछ दिखाई नहीं | | पता कब चलता है? जब दर्पण रिफ्लेक्ट करता है, तभी पता चलता पड़ता, अंधापन घेर लेता है, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई चीज, जहां है। अगर आपके पास दर्पण है, उसमें तस्वीर नहीं नहीं बढ़ना चाहिए, ऐसा भी लगता है, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई | नहीं बनता, तो उसे कौन दर्पण कहेगा? भीतर से पुकारता भी है कि अंधेरे में जा रहे हो, गलत में जा रहे | आपने कभी खयाल किया कि आपके भीतर सत्य का आज तक हो, फिर भी बढ़े जाते हैं। कोई प्रतिबिंब नहीं बना! जरूर कहीं न कहीं आपके भीतर दर्पण कृष्ण ने दूसरा एक प्रतीक लिया है, जैसे दर्पण पर धूल जम जैसी चीज खो गई है। वे जो जानते हैं, वे तो कहते हैं, वे तो कहते जाए, दर्पण पर मल जम जाए। दर्पण है, धूल जम गई है। धूल | हैं कि दिल के आईने में है तस्वीरे-यार, वह तो यहां हृदय के दर्पण जमने से दर्पण जरा भी नहीं बिगड़ता है, जरा भी नहीं। दर्पण का | में उस प्रेमी की तस्वीर है; जब जरा गरदन झुकाई देख ली। बाकी कुछ भी नहीं बिगड़ता। और दर्पण इंचभर भी कम दर्पण नहीं होता | | हम कितनी ही गरदन झुकाएं, कुछ दिखाई नहीं पड़ता। अपनी है धल के जमने से. दि मिरर रिमेंस दि मिरर: कोई फर्क नहीं पड़ता। गरदन भी नहीं दिखाई पड़ती, तस्वी बहत मश्किल है। धूल कितनी ही पर्त-पर्त जम जाए कि दर्पण बिलकुल खो जाए, तो | उस प्रेमी की तस्वीर दिखाई पड़नी तो बहुत मुश्किल है। धूल है। भी दर्पण नहीं खोता। उसकी मिरर-लाइक क्वालिटी पूरी की पूरी | - धूल क्यों कहते हैं? धुआं क्यों कहते हैं, मैंने कहा। धूल क्यों बनी रहती है। उसमें कुछ फर्क नहीं पड़ता। धूल के पहाड़ जमा दें | | कहते हैं? और कृष्ण जैसा आदमी जब एक भी शब्द का प्रयोग दर्पण के ऊपर, छोटे-से दर्पण पर एवरेस्ट रख दें धूल का, तो भी | करता है, तो यों ही नहीं करता। कृष्ण जैसे लोग टेलीग्राफिक होते दर्पण का जो दर्पणपन है, मिरर-लाइक जो उसका गुण है, वह नहीं | हैं; एक-एक शब्द बड़ी मुश्किल से उपयोग करते हैं। खोता। वह अपनी जगह है। और जब भी धूल हट जाएगी, दर्पण | जैसे टेलीग्राफ आफिस आप चले जाते हैं, तो एक-एक शब्द दर्पण है। और जब धूल थी दर्पण पर, तब भी दर्पण दर्पण था, कुछ | को काटते हैं कि कहीं ज्यादा न हो जाए, ज्यादा दाम न लग जाएं। खोया नहीं था। इसलिए दूसरा प्रतीक भी कृष्ण का बहुत कीमती आठ अक्षर, पहले दस, अब आठ से ही काम चलाना पड़ता है; है। वे कहते हैं, जैसे धूल जम जाती है दर्पण पर, ऐसे ही वासना आठ में ही काम हो जाता है। लेकिन कभी आपने खयाल किया कि 458
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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