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- वासना की धूल, चेतना का दर्पण -
आठ सौ शब्दों की चिट्ठी जो काम नहीं करती, वह आठ अक्षर का | और बड़े मजे की बात है कि वासना तृप्त न हो, तो भी चित्त तार काम कर जाता है। असल में जितने बेकार शब्द अलग हो जाते | | पीड़ित और परेशान होता है; और जो चाहा था वह मिल जाए, तो हैं, उतना ही इंटेंस, उतना ही गहरा भाव प्रकट हो जाता है। भी चित्त फ्रस्ट्रेट होता है, तो भी पीछे विषाद छूट जाता है।
कृष्ण जैसे लोग टेलीग्राफिक हैं, एक भी शब्द का ऐसे ही उपयोग | कामवासना तृप्त न हो, तो मन कामवासना के चित्रों की दुर्गंध से नहीं कर लेते। जब वे कहते हैं धूल की भांति वासना को, तो कुछ। | भर जाता है। और कामवासना तृप्त होने का मौका आ जाए, तो बात है। उन्होंने तो ठीक शब्द मल प्रयोग किया है। मल और भी, | पीछे सिवाय हारे हुए, दुर्गंध से पराजित व्यक्तित्व के कुछ भी नहीं धूल से भी कठिन शब्द है। मल में गंदी धूल का भाव है, सिर्फ धूल छूटता। दोनों ही स्थितियों में चेतना धूमिल होती है और चेतना पर का नहीं। गंदगी से भर गया। धूल ही नहीं सिर्फ, गंदगी भी। गंदगी की पर्त जम जाती है।
वासना में गंदगी क्या है? दुर्गध क्या है? बहुत दुर्गंध है। और लेकिन गंदगी की पर्त पता नहीं चलती, क्योंकि धीरे-धीरे हम वह दुर्गंध इस बात से आती है कि एक तो वासना कभी भी दूसरे | गंदगी के आदी हो जाते हैं। दुर्गंध मालूम नहीं पड़ती! नासापुट राजी का गुलाम हुए बिना पूरी नहीं होती और जीवन में सारी दुर्गंध | हो जाते हैं, कंडीशनिंग हो जाती है। तो ऐसा भी हो सकता है कि परतंत्रता से आती है। जीवन की सारी दुर्गंध परतंत्रता से आती है | हमें दुर्गंध नहीं, सुगंध मालूम पड़ने लगे। ऐसा भी हो जाता है। ऐसा और जिंदगी की सारी सुगंध स्वतंत्रता से आती है। जितना स्वतंत्र | भी हो जाता है कि जो दुर्गंध निरंतर हम उसके आदी हो गए हैं, मन, उतना ही सुवास से भरा होता है। और जितना परतंत्र मन, | कंडीशनिंग हो गई है, तो हमें लगता है कि बड़ी सुगंध आ रही है। उतनी दुर्गंध से भर जाता है। और वासना परतंत्र बनाती है। ऐसा ही हो भी गया है। और जिस दिन दुर्गंध सुगंध मालूम होने
अगर आप एक स्त्री पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ जाएगी। लगती है, उस दिन तो जैसे फिर छुटकारा बहुत मुश्किल है। जिस अंगर आप एक पुरुष पर मोहित हैं, तो एक गुलामी आ जाएगी। | आदमी को कारागृह निवास मालूम पड़ने लगे, घर मालूम पड़ने अगर आप धन के दीवाने हैं, तो धन की गुलामी आ जाएगी। अगर | लगे, फिर तो छुटकारा बहुत मुश्किल है। जिस आदमी को सूली आप पद के दीवाने हैं, तो जाकर दिल्ली में देखें! एक दफे दिल्ली | | सिंहासन मालूम पड़ने लगे, आप उसे उतारना भी चाहें सूली से, में सबको पकड़ लिया जाए और एक पागलखाना बना दिया जाए, | तो वह नाराज हो कि भाई हम सिंहासन पर बैठे हैं, आप हमें उतारने तो मुल्क बहुत शांति में हो जाए। अलग-अलग पागलखाने खोलने | की बात करते हैं! तुम भी आ जाओ। की जरूरत नहीं, पूरी दिल्ली घेरकर पागलखाना बना देना चाहिए। | तो अगर हम जीसस पर, कृष्ण और क्राइस्ट पर, और बुद्ध और या पार्लियामेंट को ही पकड़ लिया जाए, तो भी काफी है। कुर्सी! मोहम्मद पर अगर नाराज हो जाते हैं, तो नाराज होने का कारण है।
तो आदमी ऐसा गलाम हो जाता है. ऐसा गिडगिडाता है. ऐसी लार हम अपनी दर्गध में बडे मस्त हैं. तम नाहक . टपकाता है, ऐसे हाथ जोड़ता है, ऐसे पैर पड़ता है, और क्या-क्या | डिस्टर्ब करते हो। हम बड़े मजे में हैं। गोबर का कीड़ा है, वह गोबर
नहीं करता-वह सब करने को राजी हो जाता है। एक गुलामी है, | | में ही मजे में है। आप उसे गोबर से हटाएं, तो वह बड़ी नाराजगी एक दासता है।
से फिर गोबर की तरफ चला जाता है। उसके लिए गोबर नहीं है, जहां भी वासना है, वहां गुलामी होगी। जो पैसे का पागल है, उसके लिए जीवन है! उसको देखा है आपने कि रुपए को कैसा, कैसा मोहित, कैसा | खयाल शायद हमें न आए कि जहां हम जी रहे हैं, वह दुर्गंध है। मंत्रमुग्ध देखता है! रात सपने में भी गिनता रहता है। पैसा छिन लेकिन दुर्गंध तो है ही, चाहे हम कितने ही कंडीशंड हो जाएं। फिर जाए, तो उसके प्राण चले जाएं। उसका प्राण पैसे में होता है। पैसा | | हम कैसे पहचानें कि वह दुर्गंध है ? हम एक ही बात पहचान सकते बच जाए, तो उसकी आत्मा बच जाती है। वासना दुर्गंध लाती है, | | हैं, जिससे दुख मिलता हो, हम उसे पहचान सकते हैं। अगर सुगंध क्योंकि वासना परतंत्रता लाती है। और इसलिए वासना से भरा | | है वासना, तो दुख नहीं मिलना चाहिए। लेकिन दुख मिलता है, हुआ आदमी कभी सुगंधित नहीं होता। उसके चारों तरफ वह सुगंध दुख ही दुख मिलता है, फिर भी हम कहे चले जाते हैं, सुगंध। नहीं दिखाई पड़ती, जो किसी महावीर, किसी बुद्ध, किसी कृष्ण के | | कृष्ण कहते हैं, दुर्गंधयुक्त मल से ढंक जाए जैसे दर्पण। दर्पण आस-पास दिखाई पड़ती है।
कहते हैं।
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