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________________ Om परधर्म, स्वधर्म और धर्म -AIM से ही, जैसे सरिताएं बहुत हैं और सागर एक है। ऐसे तू सब धर्म-वर्म छोड़। अब तू मुझमें आ जा। ही, जैसे वर्षा की बूंदें बहुत हैं, वर्षा एक है। ऐसे ही, हम गंगा से नहीं कह सकते कि तू यमुना के रास्ते पर चल। हम जैसे गुलाब अलग है, कमल अलग है, लेकिन | | यमुना से नहीं कह सकते कि तू सिंधु के रास्ते पर चल। हम सिंधु फ्लावरिंग एक है. फल हो जाना एक है. खिल जाना एक है। स्वधर्म | से नहीं कह सकते कि तू ब्रह्मपुत्र के रास्ते पर चल। लेकिन फिर अलग-अलग हैं, धर्म अलग नहीं है। और जिस दिन स्वधर्म की, | सागर के किनारे पहुंचेंगी वे, और सागर कहेगा, आ जाओ, सब मैं अपने स्वधर्म की पूर्ति करता हूं और आप अपने स्वधर्म की पूर्ति | अपने रास्तों को छोड़ो और मुझमें आ जाओ। चलेंगी अपने रास्ते करते हैं, तो जिस मंदिर पर हम पहुंच जाते हैं, वह एक है। लेकिन | पर, फिर एक दिन रास्ते भी छोड़ देने पड़ते हैं। जिस दिन मंजिल रास्ते अलग हैं। जिस रास्ते आप पहुंचते हैं, वह मेरा रास्ता नहीं है। | मिल जाती है, उस दिन रास्ता छोड़ देना पड़ता है। मंजिल मिलकर जिस रास्ते मैं पहुंचता हूं, वह आपका रास्ता नहीं है। | जो रास्ते को पकड़े रहे, वह पागल है। परमात्मा सामने आ जाए एक कवि भी अपने गीत को गाकर उसी आनंद को उपलब्ध हो | और स्व को पकड़े रहे, वह पागल है। लेकिन परमात्मा सामने न जाता है, जो एक गणितज्ञ अपने सवाल को हल करके होता है। हो और कोई पर को पकड़ ले परमात्मा की जगह, वह भी पागल लेकिन सवाल अलग और कविता अलग। एक चित्रकार भी अपने है। पर, परमात्मा नहीं है। दि अदर, पर परमात्मा नहीं है।। चित्र को बनाकर उसी आनंद को उपलब्ध हो जाता है, जैसे एक __स्व को, तब तक तो स्व ही सब कुछ है। जब तक परमात्मा नहीं नृत्यकार नाचकर होता है। लेकिन नाचना अलग, चित्रकारी | मिलता, तब तक आत्मा ही सब कुछ है; तब तक आत्मा की ही अलग, वह आनंद एक है। स्वधर्म जहां पहुंचा देता है, वह मंजिल फिक्र करें। जब तक सागर नहीं मिलता, तब तक नदी अपने रास्ते एक है। को पकड़े रहे। और जिस दिन सागर मिले, नाचे और लीन हो जाए। 'जैसे पहाड़ पर हम चढ़ते हों अपने-अपने रास्तों से और सब उस दिन सब रास्ते छोड़ दे. तट तोड दे। फिर उस दिन मोह न करे शिखर पर पहुंच जाएं। वह शिखर पर पहुंच जाना एक, उस शिखर कि इन तटों ने इतने दिन साथ दिया, अब कैसे छोडूं! फिर उस दिन पर हवाएं, और सूरज, और आकाश, और उड़ते हुए बादल, वे चिंता न करे कि जिन रास्तों ने यहां तक पहुंचाया, उन्हें कैसे छोडूं! एक हैं; लेकिन जिन रास्तों से हम आए, वे सब अलग। रास्तों ने यहां तक पहुंचाया ही इसलिए कि अब यहां उन्हें छोड़ दो। दो आदमी एक रास्ते से नहीं पहुंचते शिखर तक, क्योंकि दो बस, रास्ते समाप्त हुए। धर्म वहां मिलता है, जहां स्वधर्म लीन हो आदमी एक जगह नहीं खड़े हैं। एक जगह खड़े भी नहीं हो सकते। जाता है। जो जहां खड़ा है, वहीं से तो यात्रा शुरू करेगा। अब मैं यहां बैठा | तीन बातें हुईं-परधर्म, स्वधर्म, धर्म। हम परधर्म में जीते हैं। हूं, आप सब अगर मेरी तरफ चलना शुरू करें, तो आप वहीं से | अर्जुन परधर्म के लिए लालायित हो रहा है। है क्षत्रिय, एप्टिटयूड शुरू करेंगे न जहां आप बैठे हैं! और आप अपनी जगह अकेले ही | | उसका वही है। अगर मनोवैज्ञानिक कहते, तो वे कहते कि तू कुछ बैठे हैं। आपकी जगह और कोई नहीं बैठा हुआ है। दूसरे जहां बैठे | और नहीं कर सकता। तेरी आत्मा निखरेगी तेरी तलवार की चमक हैं, वहां से चलेंगे। दिशाएं अलग होंगी, ढंग चलने के अलग होंगे, के साथ। तू जागेगा उसी क्षण में, जहां प्राण दांव पर होंगे। तू कोई चलने की शक्तियां अलग होंगी, चलने के इरादे अलग होंगे, | आंख बंद करके ध्यान करने वाला आदमी नहीं है। तुझे ध्यान पहुंचने के खयाल अलग होंगे। पहुंच जाएंगे एक जगह। जैसे सब | लगेगा, लेकिन लगेगा युद्ध की प्रखरता में, इंटेंसिटी में। वहां तू सरिताएं सागर में पहुंच जाती हैं, ऐसे ही सब स्वधर्म महाधर्म में | लीन हो जाएगा। वहां तू भूल जाएगा। तू ऐसा बैठकर सुबह और पहंच जाते हैं। वह धर्म एक है। लेकिन वह धर्म उस दिन मिलता | ध्यान नहीं कर सकता कि मैं शरीर नहीं हूं। नहीं, जब तलवारें है, जिस दिन स्व मिट जाता है। चमकेंगी धूप में और दांव पर सब कुछ होगा, तब तू भूल जाएगा अर्जुन से अभी कृष्ण उस धर्म की बात नहीं कर रहे हैं। उसकी | कि तू शरीर है, तब तुझे पता भी नहीं रहेगा कि तू शरीर है। तू भी भी बात करेंगे। तब वे अर्जुन से कहेंगे, सर्वधर्मान् परित्यज्य...। | जानेगा कि शरीर नहीं हूं। लेकिन वह तलवार के दांव पर होगा। वे उसकी भी बात करेंगे। वे कहेंगे, अब तू सब धर्म छोड़ दे। अभी | | वह यहां घर में बैठकर माला पकड़कर तुझसे होने वाला नहीं है। वे कह रहे हैं, स्वधर्म पकड़ ले। यही कृष्ण अर्जुन से कहेंगे, अब | वह तेरा एप्टिटयूड नहीं है, वह तेरा स्वधर्म नहीं है। तो अभी तू 443
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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