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________________ फलाकांक्षारहित कर्म, जीवंत समता और परम पद पास बैठ जाएं, घुटने से घुटना लगा लें, छाती से छाती लगा लें, दूरी अनंत है - इनफिनिट इज़ दि डिस्टेंस । कितने ही करीब बैठ जाएं, दूरी अनंत है। क्योंकि भीतर प्रवेश नहीं हो सकता; फासला बहुत है, उसे पूरा नहीं किया जा सकता। सभी प्रेमियों की तकलीफ यही है। प्रेम की पीड़ा ही यही है कि जिसको पास लेना चाहते हैं, न ले पाएं, तो मन दुखता रहता है कि पास नहीं ले पाए। और पास ले लेते हैं, तो मन दुखता है कि पास तो आ गए, लेकिन फिर भी पास कहां आ पाए ! दूरी बनी ही रही। वे प्रेमी भी दुखी होते हैं, जो दूर रह जाते हैं; और उनसे भी ज्यादा दुखी वे होते हैं, जो निकट आ जाते हैं। क्योंकि कम से कम दूर रहने में एक भरोसा तो रहता है कि अगर पास आ जाते, तो आनंद आ जाता। पास आकर पता चलता है कि डिसइलूजनमेंट हुआ। पास आ ही नहीं सकते। तीस साल पति-पत्नी साथ रहें, पास आते हैं ? विवाह के दिन से दूरी रोज बड़ी होती है, कम नहीं होती । क्योंकि जैसे-जैसे समझ आती है, वैसे-वैसे पता चलता है, पास आने का कोई उपाय नहीं मालूम होता । • हर आदमी एक मोनोड है-अपने में बंद, आईलैंड, कहीं से खुलता ही नहीं। जितने निकट रहते हैं, उतना ही पता चलता है कि परिचय नहीं है, अपरिचित हैं बिलकुल । कोई पहचान हो पाई। मरते दम तक भी पहचान नहीं हो पाती। असल में जो आदमी दूसरे की पहचान को निकला है अपने को बिना जाने, वह गलत है; वह गलत यात्रा कर रहा है, जो कभी सफल नहीं हो सकती। सांख्य स्वयं को जानने वाला ज्ञान है। इसलिए मैं कहता हूं, दि सुप्रीम साइंस, परम ज्ञान। और कृष्ण कहते हैं, धनंजय, अगर तू इस परम ज्ञान को उपलब्ध होता है, तो योग सध गया समझ; फिर कुछ और साधने को नहीं बचता । सब सध गया, जिसने स्वयं को जाना। सब मिल गया, जिसने स्वयं को पाया । सब खुल गया, जिसने स्वयं को खोला। तो अर्जुन से वे कहते हैं, सब मिल जाता है; सब योग सांख्यबुद्धि को उपलब्ध व्यक्ति को उपलब्ध है। और योग कर्म की कुशलता बन जाती है। योग कर्म की कुशलता क्यों है ? व्हाय ? क्यों ? क्यों कहते हैं, योग कर्म की कुशलता है? क्योंकि हम तो योगियों को सिर्फ कर्म से भागते देखते हैं। कृष्ण बड़ी उलटी बात कहते हैं। असल में उलटी बात कहने के लिए कृष्ण जैसी हिम्मत ही चाहिए, नहीं तो उलटी बात कहना बहुत मुश्किल है। लोग सीधी-सीधी बातें कहते रहते हैं। सीधी बातें अक्सर गलत होती हैं। अक्सर गलत होती हैं। क्योंकि सीधी बातें सभी लोग मानते हैं । और सभी लोग सत्य को नहीं मानते हैं। सभी लोग, जो कनवीनिएंट सुविधापूर्ण है, उसको मानते हैं। कृष्ण बड़ी उलटी बात कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, योगी कर्म की कुशलता को उपलब्ध हो जाता है। योग ही कर्म की कुशलता है। हम तो योगी को भागते देखते हैं। एक ही कुशलता देखते | हैं— भागने की। एक ही एफिशिएंसी है उसके पास, कि वह एकदम रफू हो जाता है कहीं से भी। रफ शब्द तो आप समझते हैं न? कंबल में या शाल में छेद हो जाता है न। उसको रफू करने वाला ठीक कर देता है। छेद एकदम रफू हो जाता है। रफू मतलब, पता ही नहीं चलता कि कहां है। ऐसे ही संन्यासी रफू होना जानता है। बस एक ही कुशलता है— रफू होने की। और तो कोई कुशलता संन्यासी में, योगी में दिखाई नहीं पड़ती। तो फिर ये कृष्ण क्या कहते हैं? ये किस योगी की बात कर रहे हैं? निश्चित ही, ये जिस योगी की बात कर रहे हैं, वह पैदा नहीं | हो पाया है। जिस योगी की ये बात कर रहे हैं, वह योगी चूक गया। | असल में योगी तो वह पैदा हो पाया है, जो अर्जुन को मानता है, कृष्ण को नहीं । अर्जुन भी रफू होने के लिए बड़ी उत्सुकता दिखला रहे हैं। वह भी कहते हैं, रफू करो भगवान ! कहीं से रास्ता दे दो, मैं निकल जाऊं। फिर लौटकर न देखूं । बड़े उपद्रव में | उलझाया हुआ है। यह सब क्या देख रहा हूं। मुझे बाहर निकलने का रास्ता बता दो। कृष्ण उसे बाहर ले जाने का उपाय नहीं, और भी अपने भीतर ले जाने का उपाय बता रहे हैं। इस युद्ध के तो बाहर ले जा नहीं रहे। | वह इस युद्ध के भी बाहर जाना चाहता है। इस युद्ध के तो भीतर ही खड़ा रखे हुए हैं, और उससे उलटा कह रहे हैं कि जरा और भीतर चल - युद्ध से भी भीतर अपने भीतर चल। और अगर तू अपने भीतर चला जाता है, तो फिर भागने की कोई जरूरत नहीं। फिर तू जो भी करेगा, वही कुशल हो जाएगा - तू जो भी करेगा, वही । क्योंकि जो व्यक्ति भीतर शांत है, और जिसके भीतर का दीया | जल गया, और जिसके भीतर प्रकाश है, और जिसके भीतर मृत्यु न रही, और जिसके भीतर अहंकार न रहा, और जिसके भीतर असंतुलन न रहा, और जिसके भीतर सब समता हो गई, और जिसके भीतर सब ठहर गया; सब मौन, सब शांत हो गया — उस व्यक्ति के कर्म में कुशलता न होगी, तो किसके होगी ? अशांत है हृदय, तो कर्म कैसे कुशल हो सकता है? कंपता है, 225
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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