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+ वर्ण व्यवस्था की वैज्ञानिक पुनर्स्थापना 4
साल की उम्र में बीस साल की लड़की से शादी रचाने का उपाय करता है। वह धोखा दे रहा है अपने को। अभी भी मानने का मन होता है कि मैं बीस ही साल का हूं। और अगर बीस साल की लड़की उत्सुक हो जाए, तो धोखा पूरा हो जाता है, सेल्फ डिसेप्शन पूरा हो जाता है। क्योंकि बीस साल की लड़की उत्सुक ही नहीं हो सकती न अस्सी साल के बूढ़े में! वह अस्सी साल का बूढ़ा भी मान लेता है कि अभी दो-चार ही साल बीते हैं बीस साल |
यह जो मनोदशा है, इस मनोदशा में संन्यास की नई ही धारणा का मेरा खयाल है। अब हमें संन्यास के लिए चौथे चरण की प्रतीक्षा करनी कठिन है। आना चाहिए वह वक्त, जब हम प्रतीक्षा कर सकें। लेकिन वह तभी होगा, जब आश्रम की व्यवस्था पृथ्वी पर लौटे। उसे लौटाने के लिए श्रम में लगना जरूरी है। लेकिन जब तक वह नहीं होता, तब तक हमें संन्यास की एक नई धारणा पर, कहना चाहिए ट्रांजिटरी कंसेप्शन पर, एक संक्रमण की धारणा पर काम करना पड़ेगा। और वह यह कि जो जहां है, वृक्ष से टूटने की तो कोशिश न करे, क्योंकि पका फल ही टूटता है। लेकिन कच्चा फल भी वृक्ष पर रेहते हुए अनासक्त सकता है। जब पका हुआ फल कच्चे होने का धोखा दे सकता कच्चा फल पके होने का अनुभव क्यों नहीं कर सकता है? इसलिए जो जहां है, वह वहीं संन्यस्त हो जाए ।
संन्यास की धारणा जीवन छोड़कर भागने वाली नहीं है। मेरे संन्यास की धारणा वानप्रस्थ के करीब है। मेरे संन्यास की धारणा वानप्रस्थ के करीब है। और मैं मानता हूं, वानप्रस्थी ही नहीं हैं, तो संन्यासी कहां से पैदा होंगे! तो मैं जिसको अभी संन्यास कह रहा हूं, ठीक से समझें तो वानप्रस्थी । वानप्रस्थी का मतलब यह है कि वह घर में है, लेकिन रुख उसका मंदिर की तरफ है। दुकान पर है, लेकिन ध्यान उसका मंदिर की तरफ है। काम में लगा है, लेकिन ध्यान किसी दिन काम से मुक्त हो जाने की तरफ है। राग में है, रंग में है, फिर भी साक्षी की तरफ उसका ध्यान दौड़ रहा है। उसकी सुरति परमात्मा में लगी है। इसके स्मरण का नाम मैं अभी संन्यास कहता हूं।
यह संन्यास की बड़ी प्राथमिक धारणा है। लेकिन मैं मानता हूं कि जैसी आज समाज की स्थिति है, उसमें यह प्राथमिक संन्यास ही फलित हो जाए, तो हम अंतिम संन्यास की भी आशा कर सकते हैं। बीज हो जाए, तो वृक्ष की भी आशा कर सकते हैं। इसलिए जो जहां है, उसे मैं वहीं संन्यासी होने को कहता हूं- - घर में, दुकान
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पर, बाजार में - जो जहां है, वहीं संन्यासी होने को कहता हूं, सब करते हुए। लेकिन सब करते हुए भी संन्यासी होने की जो धारणा है, संकल्प है, वह सबसे तोड़ देगा और साक्षी पैदा होने लगेगा। आज नहीं कल, यह वानप्रस्थ जीवन संन्यस्त जीवन में रूपांतरित हो जाए, ऐसी आकांक्षा और आशा की जा सकती है।
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत। कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्चिकीर्षुर्लोकसंग्रहम् ।। २५ ।। इसलिए हे भारत, कर्म में आसक्त हुए अज्ञानीजन जैसे कर्म करते हैं, वैसे ही अनासक्त हुआ विद्वान (भी) लोकशिक्षा को चाहता हुआ कर्म करे |
र्म में आसक्त अज्ञानीजन जैसा कर्म करते हैं, ठीक क वैसा ही अनासक्त व्यक्ति भी कर्म करे । कर्म में जो आसक्त है, वह तो करता ही है, लेकिन करता है आसक्ति के कारण। इसीलिए हमें कठिन होती है यह बात समझनी कि अनासक्त होकर कर्म कैसे करेंगे! फिर कारण क्या होगा ? अभी तो धन इकट्ठा करना है। आनंद मालूम होता है धन में, इसलिए धन | इकट्ठा करते हैं, अभी तो बड़ा मकान अहंकार को तृप्ति देता है, इसलिए बड़ा मकान बनाते हैं। अभी तो दौड़ते हैं, धूपते हैं, विक्षिप्त होकर श्रम करते हैं, क्योंकि आसक्ति है भीतर। लेकिन अनासक्त हो जाएंगे, आसक्ति नहीं होगी, तो फिर कैसे दौड़ेंगे? फिर कैसे भागेंगे? फिर कैसे श्रम करेंगे ?
तो कृष्ण यहां दो बातें कहते हैं। एक तो वे यह कहते हैं कि ठीक वैसा ही कर्म करें, जैसा आसक्त व्यक्ति कर्म करता है। अंतर कर्म में न करें, अंतर आसक्ति में करें। क्या होगा इससे ? इससे जीवन एक अभिनय हो जाएगा। एक अभिनेता भी तो कर्म करता है।
राम की सीता खो जाती है। राम जंगल में चिल्लाते हैं, रोते हैं, | पुकारते हैं, सीता ! सीता कहां है? वृक्षों पकड़कर सिर पीटते हैं, सीता कहां है? फिर रामलीला में बना हुआ राम भी, सीता खो जाती है, तो चिल्लाता है। राम से जरा ज्यादा ही आवाज में | चिल्लाता है ! क्योंकि राम के लिए कोई आडिएंस वहां नहीं थी, कोई देखने वाला, सुनने वाला नहीं था। धीमे चिल्लाए होंगे, तो भी चला होगा; जोर से चिल्लाए होंगे, तो भी चला होगा । लेकिन