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________________ yam गीता दर्शन भाग-1 AM अभिनेता जोर से चिल्लाता है। राम एक-दो दफे ही कहे होंगे, तो | मंच के बाहर। इसका पता न था मंडली को। और यह भी खयाल भी चल गया होगा। अभिनेता को बहुत बार चिल्लाना पड़ता है, | | न था कि उपद्रव हो जाएगा। उपद्रव हो गया। क्योंकि जब स्वयंवर पूरी प्रक्रिया करनी पड़ती है। अगर एक कोने में राम और एक कोने | रचा और लोग चिल्लाने लगे कि रावण, त लंका जा, लंका में आग में अभिनेता खड़ा किया जाए, तो शायद अभिनेता ही प्रतियोगिता लगी है। रावण ने कहा, आज न जाऊंगा। बड़ी मुश्किल खड़ी हो में जीत जाए! उसके भी कारण हैं, क्योंकि राम को तो एक ही दफे, | गई। रावण उठा और उसने उठाया धनुष-बाण और तोड़कर रख बिना रिहर्सल के, ऐसा मौका आया। अभिनेता के लिए रिहर्सल | दिया। और उसने कहा जनक से कि निकाल सीता कहां है? के काफी मौके मिले। फिर अभिनेता वर्षों से कर रहा है राम का ___ वह तो जनक थोड़ा समझदार आदमी था। उसने अपने नौकरों पार्ट अदा। लेकिन अभिनेता और राम में वही फर्क है, जो कृष्ण | से कहा, भृत्यो, यह तुम मेरे बच्चों के खेलने का धनुष-बाण उठा कह रहे हैं। अभिनेता कर्म तो पूरा कर रहा है, लेकिन आसक्ति | लाए, शिवजी का धनुष कहां है? परदा गिराया, रावण को निकाल कोई भी नहीं है। बाहर किया! दूसरे आदमी को रावण बनाया। तब पीछे पता चला कर्म हो सकता है बिना आसक्ति के। अभिनय से समझें। | कि वे प्रेमी थे। ऐसे तो शादी नहीं हो सकती थी. उसने सोचा कि इसलिए हम कृष्ण के जीवन को लीला कहते हैं और राम के जीवन यहीं हो जाए! भूल गया कि हम रावण का पार्ट करने आए हैं। को चरित्र कहते हैं। राम का जीवन लीला नहीं है। राम बहुत गंभीर | अभिनय में भी ऐसा हो जाता है। इससे उलटा भी हो सकता है। हैं. बहत सीरियस हैं। एक-एक चीज तौलते हैं. नापते हैं। खेल नहीं जीवन में भी अभिनय हो सकता है। है जिंदगी; जिंदगी एक काम है, वहां रत्ती-रत्ती हिसाब है। कृष्ण की | अज्ञानीजन आसक्त होकर, मोहग्रस्त होकर, जैसे कर्म में डूबे जिंदगी एक अभिनय है, वहां कुछ हिसाब नहीं है। वहां खेल है। | हुए दिखाई पड़ते हैं, कृष्ण कहते हैं, तू भी उसी तरह डूब। फर्क वहां जो वे कर रहे हैं, कर रहे हैं पूरी तरह, और फिर भी भीतर जैसे | डूबने में मत कर, फर्क डूबने वाले में कर। फर्क कर्म में मत कर, कोई दूर, अलूफ खड़ा हुआ है। इसलिए कृष्ण के जीवन को हम | | फर्क कर्ता में कर। फर्क बाहर मत कर, फर्क भीतर कर। कहते हैं लीला, चरित्र नहीं। चरित्र में बड़ा गंभीर होना पड़ता है। | कृष्ण का सारा जोर, वह जो इनर रियलिटी है, वह जो भीतर का चरित्र में जो हम कर रहे हैं, उससे संयुक्त होना पड़ता है। लीला में | सत्य है, उसको रूपांतरित करने का है। उसको बदल डाल! वहां जो हम कर रहे हैं, उससे वियुक्त होना पड़ता है। कृष्ण अगर रोएं | तू बस अभिनेता हो जा। लेकिन अर्जुन तो पूछेगा न, कि अभिनेता भी, तो भरोसा मत करना। और कृष्ण अगर हंसें भी, तो भरोसा मत | भी क्यों हो जाऊं? क्योंकि अभिनेता अभी अर्जुन हो नहीं गया। करना। और कृष्ण प्रेम भी करें, तो भरोसा मत करना। और कृष्ण | इसलिए बेचारे कृष्ण को मजबूरी में, इन कंपल्शन, एक कारण सुदर्शन लेकर लड़ने भी खड़े हो जाएं, तो भरोसा मत करना। | बताना पड़ता है। और वह कारण यह कि लोकमंगल के कारण, क्योंकि यह आदमी सब कृत्यों के बाहर ही खड़ा है। इसके लिए | लोक के मंगल के लिए। पूरी पृथ्वी एक नाटक के मंच से ज्यादा नहीं है। वस्तुतः इस कारण की भी कोई जरूरत नहीं है। और अगर कृष्ण वही वे अर्जुन से कह रहे हैं। वे कह रहे हैं, कर तो तू ठीक वैसा | कृष्ण की ही हैसियत से बात करते होते, दूसरा आदमी भी कृष्ण की ही, पूरी कुशलता से, जैसा अज्ञानीजन आसक्त होकर कर्म करते | | हैसियत का आदमी होता, तो यह शर्त न जोड़ी गई होती। क्योंकि हैं। लेकिन हो अनासक्त। अर्थात तू अभिनय कर। तू यह मत सोच | अनासक्त व्यक्ति का कर्म अनकंडीशनल है। जब सारा लोक ही कि तू युद्ध कर रहा है। तू यही सोच कि अभिनय कर रहा है। तू | लीला है, तो लोकमंगल की बात भी बेमानी है। लेकिन कृष्ण को यह मत सोच कि तू लोगों को मार रहा है और लोग मर रहे हैं। तू | जोड़नी पड़ती है यह शर्त। जिससे वे बात कर रहे हैं, वह पूछेगा, यही सोच कि तू अभिनय कर रहा है। लेकिन हम अभिनय में भी | | फिर भी कोई कारण तो हो? कि अभिनय भी बेकार करें? जहां कोई कभी-कभी इतने उलझ जाते हैं-अभिनय में भी–कि वह भी देखने ही न आया हो, वहां अभिनय क्या करें? तो कृष्ण कहते हैं, कर्म मालूम पड़ने लगता है। दर्शकों के आनंद के लिए त अभिनय कर। मैंने सुना है कि एक बार रामलीला में ऐसा हो गया। जो रावण यह जो दूसरी बात वे कह रहे हैं कि लोकमंगल के लिए, इस बना था और जो स्त्री सीता बनी थी, वे दोनों एक-दूसरे के प्रेमी थे, | बात को कृष्ण बहुत मजबूरी में कह रहे हैं। यह मजबूरी अर्जुन की 396
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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