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________________ गीता दर्शन भाग-1 AM माइंड का नाम श्रद्धा है; एकजुट हुए मन का नाम श्रद्धा है। और परमात्मा में छोड़ देते हैं, तब आप और परमात्मा संयुक्त होकर जो अगर इकट्ठा मन ही आपका अंधा है, तो फिर आपकी आंख का अनुभव घटित होता है, वह श्रद्धा है। विवेक व्यक्ति निर्भर है, श्रद्धा कोई उपाय नहीं, क्योंकि कोई जगह और बची नहीं। श्रद्धा का अर्थ | समष्टि निर्भर है। विवेक बूंद का है, श्रद्धा सागर की है। बूंद जब है, पूरा, आप में जो भी चेतना है, वह पूरी है। तो अगर पूरी चेतना | | तक अपने बलबूते जीती है, तब तक विवेक है। ठीक जीए तो विवेक भी आंख न बने, तो फिर और क्या आंख बन सकेगा। | और गलत जीए तो अविवेक। लेकिन बूंद जब जीती ही नहीं अपनी __ जितनी चेतना इकट्ठी होती है, उतनी आंख बन जाती है। चेतना | | तरफ से, सागर में अपने को छोड़ देती है और कहती है, सागर का जितनी इकट्ठी, योगस्थ होती है, उतनी देखने वाली, दर्शन के योग्य | | जीवन ही अब मेरा जीवन है, तब श्रद्धा है। हो जाती है। इसलिए हमने सत्य के अनुभव को दर्शन कहा। श्रद्धा बहुत विराट है। विवेक बहुत सीमित है। आपकी सीमा क्योंकि जब चेतना पूरी जागकर एक हो जाती है, तो पूरी आंख बन विवेक की सीमा है, आपकी सीमा श्रद्धा की सीमा नहीं है। इसलिए जाती है और देखती है सत्य को। इसलिए हमने सत्य के साक्षात्कार श्रद्धा असीम है और विवेक सीमित है। विवेक फाइनाइट है और की बात कही है, दिखाई पड़ता है। श्रद्धा इनफाइनाइट है। विवेक में आप ही हैं, भूल-चूक हो सकती श्रद्धा कभी भी अंधी नहीं हो सकती। और अगर अंधी हो, तो | है। क्योंकि आप सर्वज्ञ नहीं हैं, इसलिए विवेक में सदा गलती हो जानना कि वह विश्वास है। वही मैं फर्क कर रहा हूं। विश्वास अंधा | | सकती है। श्रद्धा में गलती का कोई उपाय ही नहीं है, क्योंकि आपने होता है, अविश्वास भी अंधा होता है। आमतौर से लोग समझते | | परमात्मा पर ही छोड़ दिया। और अगर परमात्मा से ही गलती होती हैं, विश्वास अंधा होता है। हम कहते हैं, ब्लाइंड बिलीफ, लेकिन | | है, तो फिर अब गलती से बचने की कोई जरूरत भी नहीं है, कोई ब्लाइंड डिसबिलीफ जैसा शब्द हम आमतौर से उपयोग नहीं करते। कारण भी नहीं है। फिर बचिएगा भी कैसे? हम कहते हैं, अंधा विश्वास, लेकिन अंधा अविश्वास! कभी विवेक भटक सकता है, श्रद्धा कभी नहीं भटकती। विवेक चूक खयाल किया आपने? अंधा अविश्वास भी होता है। | सकता है, श्रद्धा अचूक है। क्योंकि विवेक आपका ही है आखिर, एक नास्तिक कहता है, मैं ईश्वर को नहीं मानता। यह आंख | श्रद्धा सिर्फ आपकी नहीं है। श्रद्धा का मतलब ही है कि अपने से वाला अविश्वास है ? इस नास्तिक ने ईश्वर को जाना है? खोजा अब न होगा; अपने हाथ नहीं पहुंच पाते उतनी दूर, जहां सत्य है; है? सब जगह देख ली है, जहां-जहां हो सकता था, फिर कह रहा | अपनी छलांग नहीं लग पाती उस खाई में, जहां परमात्मा है; अपने है कि नहीं है? नहीं, यह कह रहा है कि नहीं, यह बात नहीं है। | से न होगा। जिस क्षण इस हेल्पलेस, इस असहाय स्थिति का चंकि आप ईश्वर को सिद्ध नहीं कर पाते, इसलिए हम कहते हैं कि अनुभव होता है कि हमारी सीमा है, हमसे न होगा, उसी क्षण श्रद्धा नहीं है। कोई सिद्ध न कर पाए, तो भी सिद्ध नहीं होता कि नहीं है। | जगती है। तब हम कहते हैं, अब तू ही कर, अब मुझसे तो नहीं इतना ही सिद्ध होता है कि है, यह सिद्ध नहीं हो पा रहा है। होता; अब मैं नहीं चल पाता, अब तू ही चला; अब मेरे हाथ काम अविश्वास भी अंधा होता है, विश्वास भी अंधा होता है। लेकिन नहीं करते, अब तू ही हाथ पकड़; अब मेरे पैर नहीं उठते, अब तू जो व्यक्ति न विश्वास में होता, न अविश्वास में होता, उसको ही उठा तो उठा। जिस क्षण व्यक्ति का थक पहली बार आंख मिलती है। | उसी थकान से आविर्भाव होता है उस श्रद्धा का, जो विराट से एक लेकिन खयाल में मुझे आया कि आप क्या चाहते हैं। आपने | कर देती है। कहा, विवेक शब्द और ऊपर है। विवेक बहुत बड़ा शब्द नहीं है। और ध्यान रहे, विवेक में बहुत ___नहीं, बहुत ऊपर नहीं है। विवेक और श्रद्धा में कुछ बुनियादी गहरे विचार छिपा है। वह, कहें कि विचार का सार अंश है, कहें अंतर है। वह मैं आपको खयाल दिला दूं। कि बहुत विचार का निचोड़ है, कहें कि जैसे बहुत फूलों को विवेक व्यक्ति की घटना है—आपकी। आप ही सोच- निचोड़कर कोई इत्र बना ले, ऐसा बहुतं विचारों को निचोड़कर कोई विचारकर, खोज-बीनकर जो तय कर लेते हैं, वह विवेक है। आप इत्र बना ले, तो उसका नाम विवेक है। लेकिन श्रद्धा निर्विचार है। ही। लेकिन श्रद्धा आपकी घटना नहीं है। आप खोज-बीनकर, वह किसी विचार का इत्र नहीं है। वह किन्हीं फूलों का इत्र नहीं है। सोच-विचारकर भी पाते हैं कि नहीं पाया जाता और अपने को वह हमारा अनुभव ही नहीं है। हमारे अनुभव की असमर्थता है। सब, उसी क्षण |4304
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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