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________________ im+ विषय-त्याग नहीं-रस-विसर्जन मार्ग है - घूमते रहे हैं। हम रोज एनफोर्समेंट कर रहे हैं। हमने जो किया है, | लेकिन आमतौर से तो प्रार्थना न करने से दुख मिलता है, करने उसको हम रोज बल दे रहे हैं। और फिर जब हम निर्णय लेते हैं | से आनंद नहीं मिलता। यह बड़े मजे की बात है, न करने से दुख कभी, तो हम इसका कोई खयाल ही नहीं करते कि जिन इंद्रियों के | मिलता है। वह दुख हैबिचुअल है, वह वैसा ही है जैसा सिगरेट खिलाफ हम निर्णय ले रहे हैं, उनका बल कितना है! उसकी कोई का। उसमें कोई बहुत फर्क नहीं है। रोज करते हैं, रोज आदतें कहती तौल नहीं करते कभी। बिना तौले निर्णय ले लेते हैं। फिर पराजय | | हैं, करो। नहीं किया, तो जगह खाली छूट जाती है। दिनभर वह के सिवाय हाथ में कुछ भी नहीं लगता। खाली जगह भीतर ठक-ठक करती रहती है कि आज प्रार्थना नहीं तो जो साधक सीधा इंद्रियों को बदलने में लग जाएगा और | की! फिर काम किया-आज प्रार्थना नहीं की! अब बड़ी मुश्किल जल्दी निर्णय लेगा, वह खतरे में पड़ेगा ही। इंद्रियां उसे रोज-रोज हो गई। सिगरेट भी हो तो अभी जला लो और पी लो। अब सुबह पटकेंगी। उसकी ही इंद्रियां। मजा तो यही है, किसी और की हों, | तो कल आएगी। तो भी कोई बात है। अपनी ही इंद्रियां! लेकिन फिर क्या रास्ता है? अनकंडीशनिंग! जैसे-जैसे बांधा है, वैसे-वैसे खोलना भी क्योंकि कंडीशनिंग तो बहुत पुरानी है। संस्कार बहुत पुराने हैं, पड़ता है। जैसे-जैसे आदत बनाई है, वैसे-वैसे आदत बिखरानी भी जन्मों-जन्मों के हैं। अनंत जन्मों के हैं। सब इतना सख्ती से मजबूत पड़ती है। इंद्रियों को निर्मित किया है, उनको अनिर्मित भी करना हो गया है कि जैसे एक लोहे की जैकेट हमारे चारों तरफ कसी हो, होता है। जिसमें से हिलना-डुलना भी संभव नहीं है। लोहा है चारों तरफ इस अनिर्मित करने के लिए कृष्ण एक बहुत अदभुत सुझाव देते आदतों का। कैसे होगा? हैं। वे इस सूत्र में कहते हैं कि जो ज्ञानी पुरुष है, वह सारा बोझ तब तक न होगा, जब तक हम इंद्रियों को बिलकुल ध्यान में ही | अपने ही ऊपर नहीं ले लेता। न लें और निर्णय अलग किए चले जाएं, उनका ध्यान ही न लें। ___ असल में ज्ञानी पुरुष, ठीक से समझो, तो बोझ अपने ऊपर लेता इसकी फिक्र ही न करें कि चालीस साल मैंने सिगरेट पी, और निर्णय | ही नहीं। वह बोझ बहुत कुछ तो परमात्मा पर छोड़ देता है। सच तो लेलें एक क्षण में कि अब सिगरेट नहीं पीऊंगा, तो कभी नहीं होगा। | यह है कि वह पूरा ही बोझ परमात्मा पर छोड़ देता है। और जो एक क्षण के निर्णय चालीस साल की आदतों के मुकाबले नहीं टिकने पुरानी आदतें हमला करती हैं, उनको वह पिछले कर्मों का फल वाले। क्षण का निर्णय क्षणिक है। टूट जाएगा। इंद्रियां पटक देंगी मानकर साक्षीभाव से झेलता है। उनसे कोई दुख भी नहीं लेता। वापस उसी जगह। फिर क्या करना होगा? कहता है कि ठीक। कल मैंने किया था, इसलिए ऐसा हुआ। असल में जिन इंद्रियों के साथ हमने जो किया है, उनको | बुद्ध एक गांव से निकलते। कुछ लोग गाली देते। वे हंसकर अनकंडीशंड करना होता है। उनको संस्कारमुक्त करना होता है। | आगे बढ़ जाते। फिर कोई भिक्षु उनसे पूछता, उन्होंने गाली दी, जिनकी हमने कंडीशनिंग की है, जब उनको संस्कारित किया है, तो | | आपने उत्तर नहीं दिए ? बुद्ध कहते, कभी मैंने उनको गाली दी होंगी, उनको गैर-संस्कारित करना होता है। और गैर-संस्कारित इंद्रियां | वे उत्तर दे गए हैं। अब और आगे का सिलसिला क्या जारी रखना! सहयोगी हो जाती हैं। क्योंकि इंद्रियों को कोई मतलब नहीं है कि आप जरूर मैंने उन्हें कभी गाली दी होंगी, नहीं तो वे क्यों कष्ट करते? सिगरेट पीओ, कि शराब पीओ। कोई मतलब नहीं है। सिगरेट पीने अकारण तो कुछ भी घटित नहीं होता है। कभी मैंने गाली दी होंगी, जैसी दूसरी अच्छी चीजें भी इंद्रियां वैसे ही पकड़ लेती हैं। उत्तर बाकी रह गया था, अब वे उत्तर दे गए हैं। अब मैं उनको फिर ___ एक आदमी रोज भजन करता है, प्रार्थना करता है सुबह। एक गाली दं, फिर आगे का सिलसिला होता है। सौदा पट गया। दिन नहीं करता है, तो दिनभर तकलीफ मालूम पड़ती है। इससे यह लेन-देन हो गया। अब मैं खुश हूं। अब आगे उनसे कुछ लेना-देना मत समझ लेना आप कि यह तकलीफ कुछ इसलिए मालूम पड़ | न रहा। अब मैं आगे चलता हूं। रही है कि प्रार्थना में उनको बडा आनंद मिल रहा था। क्योंकि ___ कृष्ण कहते हैं, ऐसा व्यक्ति, जो हमले होते हैं, उन हमलों को जिसको प्रार्थना में आनंद मिल गया, उसके तो चौबीस घंटे आनंद अतीत कर्मों की श्रृंखला मानता है। और उनको साक्षीभाव से और से भर जाते हैं। जिसको एक बार भी प्रार्थना में आनंद मिल गया, | शांतभाव से झेल लेता है। और जो संघर्ष है, समाधिस्थ होने की उसकी तो बात ही और है। जो यात्रा है, उसमें वह परमात्मा को, प्रभु को, जीवन-तत्व को, 263
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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