________________
गीता दर्शन भाग-1 40
अस्तित्व नहीं है। क्योंकि अंधे आदमी के लिए प्रकाश प्रकट होने में असमर्थ है। क्योंकि अंधे आदमी के पास कोई माध्यम नहीं है। जरा सोचें कि कहीं किसी न किसी ग्रह उपग्रह पर जरूर ऐसे प्राणी होंगे, जिनके पास पांच से ज्यादा इंद्रियां होंगी। तब हमको पहली दफे पता चलेगा कि और भी चीजें हैं जगत में, जिनका हमें कोई भी पता नहीं है। क्योंकि पांच इंद्रियां कोई सीमा नहीं आ गई।
वैज्ञानिक कहते हैं कि कम से कम पचास हजार प्लेनेट्स पर जीवन है, कम से कम पचास हजार प्लेनेट्स पर । कोई चार अरब ग्रहों-उपग्रहों का पता है, उनमें कम से कम पचास हजार पर जीवन
होने की संभावना है। इन पर अलग-अलग तरह का जीवन विकसित हुआ होगा—कहीं सात इंद्रियों वाले, कहीं पंद्रह इंद्रियों वाले, कहीं बीस इंद्रियों वाले व्यक्ति होंगे। तो वे वे चीजें जान रहे होंगे, जिनका हम सपना भी नहीं देख सकते। क्योंकि सपना भी हम वही देख सकते हैं, जो हम जानते हैं। सपने में भी हम वह नहीं देख सकते हैं, जो हम जानते नहीं हैं। हम कल्पना भी नहीं कर सकते, हमारे कालिदास और हमारे भवभूति और हमारे रवींद्रनाथ कविता भी नहीं लिख सकते, कल्पना भी नहीं कर सकते उसकी, जो हमारी इंद्रियों के बाहर है। लेकिन वह है। चूंकि हमें नहीं दिखाई पड़ता है, इसलिए नहीं है, ऐसा कहने का कोई भी कारण नहीं है।
और फिर अभिव्यक्ति बहुत ऊपरी घटना है। अस्तित्व बहुत भीतरी घटना है। अस्तित्व घटना नहीं है, कहना चाहिए, अस्तित्व होना है, बीइंग है । और अभिव्यक्ति हैपनिंग है, घटना है। मैं यहां बैठा हूं। मैं एक गीत गाऊं । जब तक मैंने गीत नहीं गाया था, तब तक गीत मेरे भीतर कहां था ? कहीं था । कोई फिजियोलाजिस्ट मेरे शरीर को काट-पीटकर गीत पकड़ पाता? कोई वैज्ञानिक, कोई मनोवैज्ञानिक, कोई मस्तिष्क का सर्जन मेरे मस्तिष्क को काटकर गीत की कड़ी पकड़ पाता? कहीं भी खोजने से मेरे भीतर गीत नहीं मिलता। लेकिन जो गीत मैं गा रहा हूं, अगर वह मेरे भीतर नहीं था, तो उसके आने का उपाय क्या है !
वह अनमैनिफेस्ट था, वह कहीं बीज था, वह कहीं छिपा था । वह कहीं सूक्ष्मतम तरंगों में था, वह कहीं अस्तित्व में तो था, अभिव्यक्त नहीं था। फिर वह प्रकट हुआ है। फिर वह प्रकट हुआ है। प्रकट होने से वह हो गया है, ऐसा नहीं, प्रकट होने के पहले भी था । और ऐसा भी नहीं कि वह पूरा प्रकट हो गया हो, क्योंकि प्रकट होने में मेरी सीमाएं भी बाधा डालती हैं।
रवींद्रनाथ मरते दम तक कहते रहे कि जो मैं गाना चाहता था,
| वह गा नहीं पाया हूं। लेकिन जिसको तुम गा ही नहीं पाए, तुम्हें कैसे | पता चला कि तुम उसे गाना चाहते थे ! जरूर कहीं भीतर कुछ एहसास हो रहा है; कहीं कोई फीलिंग कि कुछ गाना था। जैसा कई बार आपको लगता है कि किसी का नाम जबान पर रखा है और याद | नहीं आता। अब बड़े पागलपन की बात कहते हैं आप कि जबान पर | रखा है और याद नहीं आता। अगर जबान पर रखा है, तो अब और याद आने की जरूरत क्या है, निकालिए जबान से! लेकिन आप कहते हैं, नहीं, रखा तो जबान पर है, लेकिन याद नहीं आता।
|
क्या मतलब हुआ इसका ? इसका मतलब हुआ कि कहीं कोई | एक सरकता एहसास है कि मालूम है, लेकिन फिर भी मैनिफेस्ट नहीं हो पा रहा है, फिर भी अभिव्यक्त नहीं हो पा रहा है, मन पकड़ नहीं पा रहा है। कहीं एहसास है। और अगर आप मर जाएं या आपको काट डाला जाए और हम आपके भीतर सब खोज - बीन करें कि जो बिलकुल जबान पर रखा था, वह कहां है! तो जबान मिल जाएगी, जबान पर रखा हुआ कुछ भी नहीं मिलेगा। मस्तिष्क मिल जाएगा, तंतु मिल जाएंगे, हजारों-हजारों सेल की व्यवस्था मिल जाएगी, काट-पीट हो जाएगी, वह कहीं मिलेगा नहीं। कहीं अनभिव्यक्त, अनमैनिफेस्ट, कहीं छिपा, कहीं अंतराल में, अस्तित्व में दबा वह खो जाता है।
जो
कृष्ण कह रहे हैं, वह यह कह रहे हैं कि जो प्रकट हुआ है, | वही तू नहीं है। वह जो अप्रकट रह गया है, वही तू है । और जो अप्रकट है, वह बहुत बड़ा है; और जो प्रकट हुआ है, वह एक छोर भर है अर्जुन! ऐसे छोर बहुत बार प्रकट हुए हैं, ऐसे छोर बहुत बार प्रकट होते रहेंगे, होते रहेंगे। लेकिन वह जो अप्रकट है, वह अनंत; | वह जो अप्रकट है, अनादि, वह जो अप्रकट है, असीम; वह कभी चुकता नहीं । सारी अभिव्यक्तियों के बाद भी वह अनचुका, पीछे शेष रह जाता है।
निश्चित ही, अभिव्यक्त न होगा तो हम इंद्रियों से उसे न पहचान पाएंगे। हम इंद्रियों से न पहचान पाएंगे, क्योंकि इंद्रियां सिर्फ | अभिव्यक्ति को पकड़ती हैं। लेकिन हम इंद्रियां ही नहीं हैं। और अगर हम इंद्रियों के भीतर उतरने की कला सीख जाएं, तो जो अभिव्यक्त नहीं है, वह भी पकड़ा जाता है, वह भी पहचाना जाता है, वह भी देखा जाता है, वह भी सुना जाता है, वह भी हृदय के किसी गहन तल पर स्पर्शित होता है।
94
अभिव्यक्ति अस्तित्व की अनिवार्यता नहीं है, अभिव्यक्ति | अस्तित्व का खेल है; आकृति अस्तित्व की अनिवार्यता नहीं है,