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________________ 9m गीता दर्शन भाग-1 AM नहीं की थी। अर्जुन ने जिज्ञासा मुक्ति की नहीं की थी, अर्जुन ने अगर तू महासागर जैसा हो जाए, जहां सब आए और सब जाए, जिज्ञासा सिर्फ युद्ध से बचने की की थी। लेकिन कृष्ण कहते हैं, हे लेकिन तुझे छुए भी नहीं, स्पर्श भी न करे, अनटच्ड, अस्पर्शित, पार्थ! तेरी मुक्ति की जिज्ञासा, तेरे मोक्ष की खोज के लिए तुझे यह | | तू पीछे वैसा ही रह जाए जैसा था, तो तू ब्राह्मी-स्थिति को उपलब्ध बताता हूं। हो जाता है। ब्राह्मी-स्थिति अर्थात तब तू नहीं रह जाता और ब्रह्म __ अर्जुन ने नहीं की थी मुक्ति की जिज्ञासा, लेकिन अर्जुन ने जो ही रह जाता है। जिज्ञासा की थी, कृष्ण ने उसे इस बीच मक्ति की जिज्ञासा में और जहां मैं नहीं रह जाता, ब्रह्म ही रह जाता है, वहां फिर कोई रूपांतरित किया है। इस पूरी यात्रा में कृष्ण ने अर्जुन की जिज्ञासा | चिंता नहीं, क्योंकि सभी चिंताएं मैं के साथ हैं। जहां मैं नहीं रह को भी रूपांतरित किया है। धीरे-धीरे युद्ध गौण हो गया है। | जाता और ब्रह्म ही रह जाता है, वहां कोई दुख नहीं है, क्योंकि सब धीरे-धीरे युद्ध रहा ही नहीं है। बहुत देर हो गई, जब से युद्ध की | | दुख मैं की उत्पत्तियां हैं। और जहां मैं नहीं रह जाता और ब्रह्म ही बात समाप्त हो गई है। बहुत देर हो गई, जब से अर्जुन भी और हो रह जाता है, वहां कोई मृत्यु नहीं, क्योंकि मैं ही मरता है, जन्म लेता गया है। | है। ब्रह्म की न कोई मृत्यु है, न कोई जन्म है। वह है। अर्जुन शब्द का अर्थ होता है, दैट व्हिच इज़ नाट स्ट्रेट। ऋजु से | __ ऐसा कृष्ण ने इस दूसरे अध्याय की चर्चा में, जिसे गीताकार बनता है वह शब्द। ऋजु का मतलब होता है, सीधा-सरल। अर्जुन | सांख्ययोग कह रहा है, पहले अध्याय को कहा था विषादयोग, का मतलब होता है, तिरछा-इरछा। अर्जुन का मतलब होता है, | दूसरे अध्याय को कह रहा है सांख्ययोग। विषाद के बाद एकदम आड़ा-तिरछा। अर्जुन सीधा-सादा नहीं है, बहुत आड़ा-तिरछा है। | सांख्य! कहां विषाद से घिरा चित्त अर्जुन का और कहां विचार करने वाले सभी लोग आड़े-तिरछे होते हैं। निर्विचार ही | | ब्राह्मी-स्थिति अनंत आनंद से भरी हुई। इस संबंध में एक बात, सीधा होता है। | फिर मैं अपनी बात पूरी करूं। __ अर्जुन की जिज्ञासा को कृष्ण ने बहुत रूपांतरित किया है, | धन्य हैं वे, जो अर्जुन के विषाद को उपलब्ध हो जाएं। क्योंकि ट्रांसफार्म किया है। और ध्यान रहे, साधारणतः मनुष्य धर्म की उतने विषाद में से ही ब्राह्मी-स्थिति तक के शिखर तक उठने की जिज्ञासा शुरू नहीं करता, साधारणतः मनुष्य जिज्ञासा तो संसार की | चुनौती उत्पन्न होती है। कृष्ण ने अर्जुन के विषाद को ठीक से पकड़ । ही शुरू करता है। लेकिन उसकी जिज्ञासा को संसार से मुक्ति और लिया। मोक्ष की तरफ रूपांतरित किया जा सकता है। क्यों? इसलिए नहीं | | अगर अर्जन किसी मनोवैज्ञानिक के पास गया होता. तो कि कृष्ण कर सकते हैं, बल्कि इसलिए कि संसार की जिज्ञासा करने | | मनोवैज्ञानिक क्या करता! चूंकि मैंने यह कहा कि कृष्ण का यह पूरा वाला मनुष्य भी जानता नहीं कि क्या कर रहा है। उसकी गहरी और शास्त्र एक साइकोलाजी है, इसलिए मैं यह भी अंत में आपसे कह मौलिक जिज्ञासा सदा ही मुक्ति की होती है। | दं, अगर मनोवैज्ञानिक के पास अर्जुन गया होता, तो मनोवैज्ञानिक जब कोई धन खोजता है, तब भी बहुत गहरे में वैसा व्यक्ति क्या करता! मनोवैज्ञानिक अर्जुन को एडजस्ट करता। मनोवैज्ञानिक आंतरिक दरिद्रता को मिटाने की चेष्टा में रत होता है-गलत चीज | कहता कि समायोजित हो जा। ऐसा तो युद्ध में होता ही है, सभी से, लेकिन चेष्टा उसकी यही होती है कि दरिद्र न रह जाऊं, | | को ऐसी चिंता पैदा होती है। यह बिलकुल स्वाभाविक है। तू नाहक दिवालिया न रह जाऊं। जब कोई आदमी पद खोजता है, तब भी | | की एबनार्मल बातों में पड़ रहा है। तू व्यर्थ की विक्षिप्त बातों में पड़ उसकी भीतरी कोशिश, आत्महीनता न रह जाए, उसी की होती रहा है। ऐसे पागल हो जाएगा, न्यूरोसिस हो जाएगी। अर्जुन नहीं है-गलत जगह खोजता है। जब कोई आदमी युद्ध से भागना | | मानता, तो वह कहता कि तू फिर इलेक्ट्रिक शॉक ले ले; इंसुलिन चाहता है, तब भी वह युद्ध से नहीं भागना चाहता, बहुत गहरे में के इंजेक्शन ले ले। संताप से, एंग्विश से, चिंता से ऊपर उठना चाहता है। लेकिन फिर | लेकिन कृष्ण ने उसके विषाद का क्रिएटिव उपयोग किया। भी वह ठीक दिशा में नहीं पहुंचता। | उसके विषाद को स्वीकार किया कि ठीक है। अब इस विषाद को __ इस बात को कहकर कृष्ण बहुत गहरा इंगित दे रहे हैं। वे कह हम ऊपर ले चलते हैं। हम तुझे विषाद के लिए राजी न करेंगे। हम रहे हैं, हे अर्जुन, तेरी मुक्ति की जिज्ञासा के लिए मैंने यह सब कहा। विषाद का ही उपयोग करके तुझे ऊपर ले जाएंगे। 296
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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