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________________ - विषाद की खाई से ब्राह्मी-स्थिति के शिखर तक पर है। लेकिन सब तैयारी करके आई है वह। पर वह तैयारी नींद में की आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं गई थी, उसे कोई काज-इफेक्ट दिखाई नहीं पड़ता कि ये इतने चुस्त समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्। कपड़े, इतने बेढंगे कपड़े, इतनी सजावट किसी को भी धक्का तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सवें मारने के लिए निमंत्रण है। स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ।। ७०।। और बड़े मजे की बात है, अगर उसको कोई धक्का न दे और | और जैसे सब ओर से परिपूर्ण अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में कोई न देखे, तो भी दुखी लौटेगी कि बेकार गई, सब मेहनत बेकार नाना नदियों के जल उसको चलायमान न करते हुए ही समा गई। किसी ने देखा ही नहीं! सड़क पर कोई इसे न देखे, कोई इसको जाते हैं, वैसे ही जिस स्थितप्रज्ञ पुरुष के प्रति संपूर्ण भोग ले ही न, कोई अटेंशन न दे, तो यह ज्यादा दुखी लौटेगी। धक्का किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं, दे, तो भी दुखी लौटेगी। क्या हो रहा है यह! वह पुरुष परमशांति को प्राप्त होता है, मैंने सुना है कि एक बच्चे ने अपने बाप को खबर दी कि मैंने पांच न कि भोगों को चाहने वाला। मक्खियां मार डाली हैं। उसके बाप ने कहा, अरे! और उसने कहा विहाय कामान्यः सर्वान्युमांश्चरति निःस्पृहः । कि तीन नर थे, दो मादाएं थीं। उसके बाप ने कहा कि हद कर रहा निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ।। ७१।। है, तूने कैसे पता लगाया? तो उसने कहा कि दो मक्खियां क्योंकि, जो पुरुष संपूर्ण कामनाओं को त्यागकर ममतारहित आईने-आईने पर ही बैठती थीं। समझ गया कि स्त्रियां होनी चाहिए। __ और अहंकाररहित, स्पृहारहित हुआ बर्तता है, यह जो नींद में सब चल रहा है, इसमें हम ही कारण होते हैं और ...- वह शांति को प्राप्त होता है। जब कार्य आता है, तब हम चौंककर खड़े हो जाते हैं कि यह मैंने एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति । नहीं किया! अगर हम नींद में न हों, तो हम फौरन समझ जाएंगे, स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति । । ७२ ।। यह मेरा किया हुआ है। यह धक्का मेरा बुलाया हुआ है। यह धक्का हे अर्जुन, यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की ब्राह्मी-स्थिति है। ऐसे ही नहीं आ गया है। इस जगत में कुछ भी आकस्मिक नहीं है, इसको प्राप्त होकर वह मोहित नहीं होता है एक्सिडेंटल नहीं है। सब चीजों की हम व्यवस्था करते हैं। लेकिन और अंतकाल में भी इस निष्ठा में स्थिर होकर फिर व्यवस्था जब परी हो जाती है. तब पछताते हैं कि यह क्या हो ब्रह्म-निर्वाण को प्राप्त हो जाता है। गया! यह क्या हो रहा है? यह भी नींद का अर्थ है। संयमी, ज्ञानी इस भांति कभी नहीं सोता; जागा ही रहता है। स्वभावतः, जागकर वह वैसा व्यवहार = पार्थ! जैसे महासागर अनंत-अनंत नदियों को भी नहीं करता, जैसा. सोया आदमी करता है। उसका मैं कभी केंद्र में e अपने में समाकर जरा भी मर्यादा नहीं खोता, इंचभर नहीं होता। मैं सदा नींद के ही केंद्र में होता है। समझ लें कि नींद भी परिवर्तित नहीं होता; जैसे कुछ समाया ही नहीं का केंद्र में है। न-मैं, ईगोलेसनेस, निरअहंकार भाव, जागरण का | | उसमें, ऐसा ही होता है। जैसा पहले था हजारों नदियों के गिरने के, केंद्र है। | ऐसा ही बाद में होता है। ऐसे ही जो व्यक्ति जीवन के समस्त भोग यह बड़े मजे की बात है। इसको अगर हम ऐसा कहें तो | | अपरिवर्तित रूप से, भोगने के पहले जैसा था, भोगने के बाद भी बिलकुल कह सकते हैं कि सोया हुआ आदमी ही होता है, जागा | वैसा ही होता है। जैसे कि भोगा ही न हो, अर्थात जो भोगते हुए भी हुआ आदमी होता नहीं। यह बड़ा उलटा वक्तव्य लगेगा। सोया | न-भोगा बना रहता है, जो भोगते हुए भी भोक्ता नहीं बनता है, हुआ आदमी ही होता है-मैं। जागा हुआ आदमी नहीं होता | जिसमें कोई भी अंतर नहीं आता है, जो जैसा था वैसा ही है; नहीं है-न-मैं। जागरण आदमी के अहंकार का विसर्जन है। निद्रा | | होता, तो जैसा होता, होकर भी वैसा ही है। ऐसा व्यक्ति मुक्ति को, आदमी के अहंकार का संग्रहण है, कनसनट्रेशन है, केंद्रीकरण है। ब्राह्मी-स्थिति को उपलब्ध हो जाता है। कृष्ण कहते हैं, हे पार्थ! तेरी मुक्ति की जिज्ञासा...। बड़ी मजे की बात कहते हैं। क्योंकि अर्जुन ने जिज्ञासा मुक्ति की 295
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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