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________________ m+ गीता दर्शन भाग-1 +m निकल जाए। वह नहीं हो सका। और अब राममोहन राय, गांधी सकते हैं या ब्राह्मण हो सकते हैं। ये पोलेरिटीज हैं, ये ध्रुवताएं हैं। और उन सारे लोगों के आधार पर, जिनकी कोई मनोवैज्ञानिक लेकिन शद्र होना तो प्रकति से ही हो जाता है: ब्राह्मण होना समझ नहीं है, शूद्र एक दूसरी यात्रा पर निकला है। वह कह रहा है। | उपलब्धि है। वैश्य होना प्रकृति से ही हो जाता है; क्षत्रिय होना कि हम ब्राह्मण को भी शूद्र बनाकर रहेंगे। अब हम तो ब्राह्मण नहीं उपलब्धि है। बन सकते। वह बात छोड़ें। लेकिन अब हम ब्राह्मण को भी शूद्र बनाकर रहेंगे। शूद्र ब्राह्मण बने, यह हितकर है। लेकिन वह यात्रा आंतरिक प्रश्नः भगवान श्री, दूसरी बात, कल आपने बताया यात्रा है। लेकिन शूद्र सिर्फ ब्राह्मण को खींचकर शूद्र बनाने की | कि अंतर्मुखी, इंट्रोवर्ट व्यक्ति ज्ञान से शून्यत्व को चेष्टा में लग जाए, तो वह सिर्फ आत्मघाती बात है। शूद्र आतुर है | अर्थात निर्वाण को प्राप्त होता है; उसी तरह बहिर्मुखी, कि ब्राह्मण और उसके बीच का फासला टूट जाए। फासला टूटना एक्सट्रोवर्ट व्यक्ति साधना से पूर्णत्व अर्थात ब्रह्म को चाहिए। लेकिन वह एक मनोवैज्ञानिक साधना है; वह एक प्राप्त करता है। तो फिर गीता के द्वितीय अध्याय के सामाजिक व्यवस्था मात्र नहीं है। अंतिम श्लोक में श्रीकृष्ण ने बताया है, और यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि उसी तरह ब्राह्मण भी | ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति। यह क्या है? क्या यह दोनों का बहुत बेचैन है कि कहीं फासला न टूट जाए। शंकराचार्य पुरी के | समन्वय है? बहुत बेचैन हैं कि कहीं फासला न टूट जाए! कहीं ब्राह्मण और शूद्र का फासला न टूट जाए! यह डर भी इसी बात की सूचना है कि अब ब्राह्मण ब्राह्मण नहीं है, अन्यथा फासला टूटने से वह डरने समन्वय की जरूरत सत्य को कभी नहीं होती, सिर्फ वाला नहीं था। फासला टूट नहीं सकता। शूद्र बगल में बैठ जाए | असत्यों को होती है। सत्य समन्वित है। ब्रह्म-निर्वाण, ब्राह्मण के, इससे फासला नहीं टूटता। शूद्र ब्राह्मण की थाली में | ऐसे शब्द के प्रयोग का एक ही मतलब होता है कि बैठकर खा ले, इससे फासला नहीं टूटता। अगर ब्राह्मण असली | कुछ लोग जिसे ब्रह्म कहते हैं, कुछ लोग उसी को निर्वाण कहते हैं। है, तो फासला ऐसे टूटता नहीं। लेकिन अगर ब्राह्मण खुद ही शूद्र | जो शून्य से चलते हैं, वे निर्वाण कहते हैं; जो पूर्ण से चलते हैं, वे है, तो फासला तत्काल टूट जाता है। ब्राह्मण डरा हुआ है, क्योंकि | ब्रह्म कहते हैं। लेकिन जिस अनुभूति के लिए ये शब्द प्रयोग किए वह शूद्र हो चुका है करीब-करीब। और शूद्र आतुर है कि ब्राह्मण जा रहे हैं, वह एक ही है। ब्रह्म-निर्वाण, ब्रह्म की अनुभूति और को शूद्र बनाकर रहे। निर्वाण की अनुभूतियों के बीच समन्वय नहीं है, क्योंकि समन्वय यह मैं जो कह रहा है. वह इसलिए कह रहा है, ताकि यह के लिए दो का होना जरूरी है। ब्रह्म-निर्वाण एक ही अनुभूति के खयाल आ सके कि भारत की वर्ण की धारणा के पीछे बड़े लिए दिए गए दो नामों का इकट्ठा उच्चार है। सिर्फ इस बात को मनोवैज्ञानिक खयाल थे। मनोवैज्ञानिक खयाल यह था कि प्रत्येक बताने के लिए कि कुछ लोग उसे निर्वाण कहते हैं और कुछ लोग व्यक्ति ठीक से पहचान ले कि उसका टाइप क्या है, ताकि उसकी | उसे ब्रह्म कहते हैं। लेकिन वह जो है, वह एक ही है। जो लोग आगे जीवन की यात्रा व्यर्थ यहां-वहां न भटक जाए; वह यहां-वहां | विधायक हैं, पाजिटिव हैं, वे उसे ब्रह्म कहते हैं; जो लोग निगेटिव न डोल जाए। वह समझ ले कि वह अंतर्मुखी है कि बहिर्मुखी है, हैं, नकारात्मक हैं, वे उसे निर्वाण कहते हैं। लेकिन वे जिसे कहते और उस यात्रा पर चुपचाप निकल जाए। एक क्षण भी खोने के हैं, वह एक्स, वह अज्ञात, वह एक ही है। योग्य नहीं है। और जीवन का अवसर एक बार खोया जाए, तो न __इसलिए कृष्ण ब्रह्म-निर्वाण दोनों का एक साथ प्रयोग कर रहे मालूम कितने जन्मों के लिए खो जाता है। व्यक्तित्व ठीक से हैं, समन्वय के लिए नहीं, सिर्फ इस बात की सूचना के लिए कि पहचानकर साधना में उतरे, यह जरूरी है। | सत्य एक ही है, जिसे जानने वाले बहुत तरह से कहते हैं। और इसलिए मैंने कहा, अगर आप बहिर्मुखी हैं, तो या तो आप वैश्य बड़े से बड़े जो भेद हो सकते हैं उनके कहने के, वे दो हो सकते हो सकते हैं या क्षत्रिय हो सकते हैं। अंतर्मुखी हैं, तो या शूद्र हो हैं: या तो वे कह दें कि वह शून्य है या वे कह दें कि वह पूर्ण है। 1322
SR No.002404
Book TitleGita Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherRebel Publishing House Puna
Publication Year1996
Total Pages512
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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