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120+ परमात्म समर्पित कर्म +mm
बारह तक सब ठीक चला। लेकिन तेरह की जो गिनती आई, तो प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को अचानक उन्हें तेरा से तेरे का खयाल आ गया, उसका, परमात्मा | रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम वृद्धि को प्राप्त होओ का। बारह तक तो सब ठीक चला, तेरहवें पल्ले को उलटते वक्त और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनाओं को उनको आया खयाल, तेरा। वह जो तेरह शब्द है, वह तेरा। फिर
देने वाला होवे। चौदह नहीं निकल सका मुंह से। फिर दूसरा भी पलवा भरा और फिर भी कहा, तेरा। फिर तीसरा भी पलवा भरा...। फिर लोग समझे कि पागल हो गए। भीड़ इकट्ठी हो गई। उन्होंने कहा, यह ग ज्ञपूर्वक कर्म, इसे कहने के ठीक पीछे कृष्ण कहते हैं, क्या कर रहे हो, गिनती आगे नहीं बढ़ेगी? तो नानक ने कहा, 4 सृष्टि के प्रथम क्षण में स्रष्टा ने भी ऐसे ही यज्ञरूपी उसके आगे अब और क्या गिनती हो सकती है। मालिक ने बुलाया
कर्म का विस्तार किया है। और कहा, पागल हो गए! नानक ने कहा, अब तक पागल था। इसे भी थोड़ा समझ लेना उपयोगी है। अब बस, इस गिनती के आगे कुछ नहीं है। अब सब तेरा। | हम निरंतर परमात्मा को स्रष्टा कहते हैं। हम निरंतर परमात्मा
फिर नौकरी तो छूट ही गई। लेकिन बड़ी नौकरी मिल गई, को बनाने वाला, क्रिएटर कहते हैं। लेकिन बनाना, सृजन, परमात्मा की नौकरी मिल गई। छोटे-मोटे मालिक की नौकरी छुटी, निर्माण किसी भी चीज का-दो ढंग से हो सकता है। अगर परम मालिक की नौकरी मिल गई। और जब भी कोई नानक से परमात्मा भी मैं के भाव से सजन करे, तो वह यज्ञ नहीं रह जाएगा पूछता कि तुम्हारी जिंदगी में यह कहां से आई रोशनी? तो वे कहते, परमात्मा के लिए यह सृजन बिलकुल ईगोलेस, मैं-भाव से रिक्त तेरे, तेरा, उस शब्द से यह रोशनी आई। जब भी कोई पूछता, कहां | | और शून्य है। कहना चाहिए, यह सारी सृष्टि परमात्मा के लिए से आया यह नृत्य? कहां से आया यह संगीत? कहां से यह उठा सहज आविर्भाव है, स्पांटेनियस फ्लावरिंग है। में सृजन करूं, में नाद? तो वे कहते, बस एक दिन स्मरण आ गया कि तू ही है, तेरा | | बनाऊं, ऐसा कहीं कोई भाव नहीं है। हो भी नहीं सकता। क्योंकि ही है, मेरा नहीं है।
मैं सिर्फ वहीं पैदा होता है, जहां तु की संभावना हो। परमात्मा के तो जो कृष्ण कह रहे हैं अर्जुन से, वह यही कह रहे हैं कि एक | | लिए कोई भी तू नहीं है, अकेला है। इसलिए मैं का कोई भाव दफा हिम्मत करके, संकल्प करके अगर तू जान पाए कि तेरा नहीं | | परमात्मा में नहीं हो सकता। और जिस दिन हम में भी मैं का कोई है कृत्य, तो फिर कोई बंधन नहीं। क्यों बंधन नहीं? क्योंकि बंधने | | भाव नहीं रह जाता, हम परमात्मा के हिस्से हो जाते हैं। के लिए भी मैं का भाव चाहिए। बंधेगा कौन? मैं तो चाहिए ही, यह सारी सृष्टि परमात्मा के भीतर किसी वासना के कारण नहीं अगर बंधना है।
| है, फल नहीं है। यह सारी सृष्टि, कहना चाहिए, परमात्मा का अब यह बड़े मजे की बात है कि मैं अगर नहीं हूं, तो बंधेगा | | स्वभाव है। ऐसे ही जैसे बीज टूटकर अंकुर बन जाता है और जैसे कौन? बंधूंगा कैसे? मैं चाहिए बंधने के लिए और मेरा चाहिए | अंकुर टूटकर वृक्ष बन जाता है और जैसे वृक्ष फूलों से भर जाता बांधने के लिए। ये दो सूत्र खयाल में ले लें। मैं चाहिए बंधने के है, ठीक ऐसे ही परमात्मा के लिए सृष्टि अलग चीज नहीं है। लिए और मेरा चाहिए बांधने के लिए। मैं बनेगा कैदी और मेरा | परमात्मा का स्वभाव है। बनेगा जंजीर। लेकिन जिस दिन कोई व्यक्ति कह पाता है, मैं नहीं, | ___ इसलिए मैं निरंतर एक बात कहना पसंद करता हूं कि हम तू ही; मेरा नहीं, तेरा; उस दिन न तो बंधन बचता है और न बंधने | | परमात्मा को क्रिएटर कहकर थोड़ी-सी गलती करते हैं, स्रष्टा वाला बचता है। ऐसे क्षण में व्यक्ति का जीवन यज्ञ हो जाता है। | कहकर थोड़ी-सी गलती करते हैं। क्योंकि जब हम परमात्मा को यज्ञ मुक्ति है। यज्ञ के भाव से किया गया कर्म स्वतंत्रता है। स्रष्टा कहते हैं, तो हम सृष्टि और स्रष्टा को अलग तोड़ देते हैं।
ऐसा नहीं है। ज्यादा उचित होगा कि हम परमात्मा को स्रष्टा न
कहकर, सृजन की प्रक्रिया कहें। ज्यादा उचित होगा कि हम क्रिएटर सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। | न कहकर, क्रिएटिविटी कहें। ज्यादा उचित होगा कि हम सृष्टि और अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् । । १०।। स्रष्टा को दो में न तोड़ें, बल्कि एक में ही रखें। वही है।
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