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m गीता दर्शन भाग-1 4
जो अत्ता में है पाली के। अत्ता का मतलब ही होता है, दि एनफोर्ल्ड धर्मों के बीच सारा विवाद भाषा का विवाद है, सत्य का विवाद नहीं ईगो। अत्ता शब्द के स्वर में और दबाव में भी वह बात है—मैं। | है। और जो लोग भाषा के लिए विवाद कर रहे हैं, कम से कम
बुद्ध कहते हैं, जहां-जहां अत्ता है, जहां-जहां मैं है, वहां-वहां | | धार्मिक तो नहीं हैं, शब्द-शास्त्री होंगे, लिंग्विस्ट्स होंगे। मगर वे अज्ञान है। और जो आदमी अत्ता को मानता है, आत्मा को मानता | शब्द-शास्त्री अपने को धार्मिक समझ लेते हैं, तब बड़ी कठिनाई है, वह अज्ञानी है। लेकिन बुद्ध भी कहते हैं कि जो अत्ता को छोड़ | हो जाती है। देता है, तब जो शेष रह जाता है, वही ज्ञान है।
इसीलिए बुद्ध को लोग कहते हैं अनात्मवादी, और महावीर को कहते हैं आत्मवादी। और वे दोनों एक ही बात कह रहे हैं, वहां वाद सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो। का कोई उपाय नहीं है। वाद शब्दों तक है। वाद अभिव्यक्ति तक ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ।। ३८।। है। वाद एक्सप्रेशन है, एक्सपीरिएंस नहीं।
यदि तुझे स्वर्ग तथा राज्य की इच्छा न हो, तो भी लेकिन बड़ी कठिनाई है। बड़ी कठिनाई है, हमारे पास तो शब्द सुख-दुख, लाभ-हानि और जय-पराजय को समान आते हैं। और शब्द भी पंडितों के द्वारा आते हैं। शब्द भी शास्त्रीयता समझकर, उसके उपरांत युद्ध के लिए तैयार हो। इस प्रकार के मार्ग से गुजरकर आते हैं। शब्द ही रह जाते हैं। और अक्सर ऐसा युद्ध को करने से तू पाप को नहीं प्राप्त होगा। नहीं हो पाता कि हम अनुभूति से खोजने जाएं कि महावीर कहते हैं कि अहंकार छोड़ दो, तो जो बचता है, आत्मा है-हम अहंकार छोड़कर देखें। बुद्ध कहते हैं कि आत्मा के भाव को ही छोड़ दो, तब 1 ख और दुख को समान समझकर, लाभ और हानि जो शेष रह जाता है, वही समाधि है—वह भी करके देखें। तब राको समान समझकर, जय और पराजय को समान आपको पता चलेगा, बड़ा पागलपन हुआ। ये तो दोनों एक ही जगह | ० समझकर, युद्ध में प्रवृत्त होने पर पाप नहीं लगेगा। पहुंचा देते हैं। लेकिन इतनी किसी को सुविधा नहीं है।
कष्ण का यह वक्तव्य बहत केटेगोरिकल है. बहत निर्णायक है। हम शब्दकोश से सुनते हैं, दर्शनशास्त्र में पढ़ते हैं। बौद्ध पंडित | पाप और पुण्य को थोड़ा समझना पड़े। हैं, जैन पंडित हैं, हिंदू पंडित हैं, उनके पास शब्दों के सिवाय कुछ साधारणतः हम समझते हैं कि पाप एक कृत्य है और पुण्य भी भी नहीं है। वे उन शब्दों की व्याख्याएं करते चले जाते हैं। फिर | | एक कृत्य है। लेकिन यहां कृष्ण कह रहे हैं कि पाप और पुण्य कृत्य प्रत्येक निजी शब्द के पास–निजी कह रहा हूं, क्योंकि इतना नहीं हैं, भाव हैं। अगर पाप और पुण्य कृत्य हैं, एक्ट हैं, तो इससे एकांत अनुभव है महावीर और बुद्ध और शंकर का कि मामला क्या फर्क पड़ता है कि मैं लाभ-हानि को बराबर समझू या न प्राइवेट ही है, वह बहुत पब्लिक नहीं है-उस निजी शब्द के समझू? अगर मैं आपकी हत्या कर दूं, लाभ-हानि बराबर समझू आस-पास फिर व्याख्याओं का जाल बुनता चला जाता है। फिर | | या न समझू, आपकी हत्या के कृत्य में कौन-सा फर्क पड़ जाएगा? जाल इतना बड़ा हो जाता है कि महावीर के आस-पास जो जाल | | अगर मैं एक घर में चोरी करूं लाभ-हानि को बराबर समझकर, खड़ा हआ वह, बद्ध के आस-पास जो जाल खडा हआ वह, शंकर तो यह पाप नहीं होगा; और लाभ-हानि को बराबर न समझं, तो के आस-पास जो जाल खड़ा हुआ वह, वे इतने दुश्मन हो जाते हैं | यह पाप होगा? तब इसका मतलब यह हुआ कि पाप और पुण्य हजार दो हजार साल की यात्रा में कि वह जो बीच में मूल शब्द था का कृत्य से, एक्ट से कोई संबंध नहीं है, बल्कि व्यक्ति के भाव
और शब्द के भी मूल में जो अनुभूति थी, वह कहीं की कहीं खो | से संबंध है। यह तो बहुत विचारने की बात है। जाती है, उसका फिर कोई भी पता नहीं रहता।
__ हम सब तो पाप और पुण्य को कृत्य से बांधकर चलते हैं। हम इसलिए अड़चन है। अन्यथा अनुभूति कभी भी भिन्न नहीं है। | कहते हैं, बहुत बुरा काम किया। हम कहते हैं, बहुत अच्छा काम अभिव्यक्ति भिन्न हो सकती है, होती है, एक होने की संभावना भी | | किया। कृष्ण तो इस पूरी की पूरी व्यवस्था को तोड़े डालते हैं। वे नहीं है। जिस दिन मनुष्य यह जान पाएगा, उस दिन धर्मों के बीच कहते हैं, काम अच्छे और बरे होते ही नहीं, करने वाला अच्छा और विवाद नहीं है। और जितना जल्दी जान ले, उतना शुभ है। क्योंकि बुरा होता है। नाट दि एक्ट, बट दि एक्टर, कृत्य नहीं कर्ता! जो
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